नींव की ईमारत
देखता हूंँ सिर उठा कर,
निःस्तब्ध खड़ा है ,
गगनचुंबी भव्य ईमारत,
मस्तक ताने गगन की ओर,
सुंदर और आकर्षित करता,
पहचान बताता अति दूर तक ,
झुकता ही नहीं झोपड़ी के समझ ,
प्यार नहीं यह अभिमान है ,
सदैव अटल रहूंँगा ,
बंद खिड़की और दरवाजे के अंदर ,
आनंद भरा जीवन है भीतर ,
हवाओं के झोंके से नहीं उजड़ता,
मलिन बस्ती से दूर,
स्वच्छ और हरियाली में ठहरता ,
ठहरी है ईमारत विशाल,
समय का पहिया नहीं रुकता है ,
अभिमान का मान खंडहर में बदलेगा,
धरा में गिरेगा शीश एक दिन,
कितने उजड़े थे छोटे-छोटे आशियाने,
उस पर खड़ा आज अभिमान है तुझमे,
पहचान है तेरी मुझसे ,
ठहरते थे छोटी सी झोपड़ी में ,
मजदूर कारीगर छोटे परिवार ,
जहांँ से हुआ है निर्माण तेरा ,
इसी धरा से जुड़ा है नींव की ईमारत ,
नींव पर ईमारत खड़ा है बसेरा ।
✍?✍?बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर ।