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7 Oct 2020 · 1 min read

“नाव कागज की”

नाव कागज की,
बनायी थी बचपन में मैंने।
कुछ सपनों को रख,
तैराया था पानी में मैंने।
वो बूंदों ने भिगोया था,
जो गीले से सपनों को ,
नाव कागज की वो ,
बह चली थी बचपन में।
आज आती है याद उसकी,
जिसपे सवार मेरे सपने हुए,
धूल गई आज यादों के धुंधलके,
देख वो नाव कागज की,
जो बनायी थी बचपन में मैंने।
चलो घूम आते हैं ,
उन्हीं यादों की गलियों में ,
जोड़ते है वो बिखरे से सपने,
नन्हे से हाथो के वो कोमल से सपने,
फिर बनाते है नाव कागज की,
कुछ सपनों को फिर बहाते है।
चलो डूब जाते है,
यादों की बारिश में ,
लेकर वो भीगते सपने।
नाव कागज की,
बनायी थी बचपन में मैंने।
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”…

Language: Hindi
1 Like · 333 Views
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