*** ” नाविक ले पतवार….! ” ***
# भोर हो चला है , कश्ती संवार ;
नाविक ले हाथों में पतवार ।
चल आगे बढ़ , सागर की लहरों को चीर ,
कर उस पर वार ।
ये ना सोंच , सुबह हुआ तो लहरों के जोर ,
कम हो जायेगा ।
मध्यांतर में सघन , संध्या तक सरल ;
और रजनी की आगोश़ में विरल हो जायेगा ।
उक्त सोचना एक भ्रम है ,
कब ज्यादा , कब कम ;
ये एक वहम है ।
ना जाने किस क्षण ,
कर जाए हम पर वार ;
है रहना माझी , हर वक़्त हमको तैयार ।
कौन जाने नेक है , उसके इरादे ,
कब बने भंवर-जाल
कब कश्ती से , हमको गिरा दे ।
ये ना जाने कोई यारा ,
फिर हम कैसे…? अनुमान लगा दें ।
हो चाहे परिस्थितियाँ विषम ,
लहरों के विपरीत चलना है ;
अदम्य साहस रखना है ।
सागर-सलिल…,
करेगा जलील ;
और घेरा जल-समीर का ,
उनके साथ ही रहेगा ।
कश्ती से भी कहेगा ,
लौट जा वरना….!
काल-भंवर से गुजरना पड़ेगा ।
और…
काल-चक्र का क्या पता ;
यमराज जी के , घर भी जाना पड़ेगा ।
गुमराह भरी बातें कर हमसे ;
विचलित करने का , प्रयास भी करेगा ।
मन में , हमने ठाना है ;
लक्ष्य की ओर जाना है ।
सो…, हे नाविक…! ,
हो अभी से तैयार… ;
भोर हो चला है ,
ले हाथों में पतवार ।
चल आगे बढ़ , लहरों को चीर ,
कर उस पर विजयी वार ।
## काश…! , कोई गति न होता ,
समय के पांव में ;
हम यूँ ही लौट चलते ,
बचपन की नाव में ।
जहाँ न कोई ग़म होता ;
और न कहीं राह में ,
भटकने का , कोई भ्रम होता ।
अब…! आ….! , चल….! ,
अपनी बाहू बलिष्ठ कर ;
अपना तन-मन ,
तनिक हिष्ठ और पुष्ठ कर ।
हो चल..! अब तैयार ,
कश्ती पर हो कर सवार ।
अभी तो…! ,
ये सागर तट का किनारा है ;
इसी कश्ती के सहारे ,
इस छोर से उस छोर तक जाना है।
मौसम भी….
कुछ इतरायेग ,
अपनी कोई…,
तिकड़मी-चाल चल जायेगा ।
बिन बादल , वर्षा-जाल…,
फैला जायेगा ,
और लहरों के संग में…,
मिल जायेगा ।
और भी आगे क्या कहूँ…? यारा ;
कभी धूप , कभी छाँव बन ,
कोहरे के रंग-ढंग में मिल जायेगा ।
छल करेगी नीर-निशा ,
बदल देगी अपनी दिशा ,
फिर भी….! हमें चलना होगा ,
राह नहीं बदलना होगा ।
लहरों के संग ,
आंधियों के शोर होंगे ;
हमें लक्ष्य से , विचलित करने ,
यत्न- प्रयत्न पुरजोर होंगे ।
माना कि राह कठिन है ,
हम भी दिशा-विहीन हैं ।
हो सके उनके वार से ;
हम , दिशा-हीन हो जायेंगे ।
चलते-चलते राह भटक ;
भंवरी-भंवर-जाल में , विलीन हो जायेंगे।
लेकिन…! ,
न हम विवेकहीन है ,
हम अपने पूर्वज ” मनु ” के जीन है ।
न कोई , हम चिंदी-चील हैं ,
हम भी , यत्न-प्रयत्नशील हैं ।
सागर भी यह जाने.. ,
सात समंदर पार करने वाले ;
ओ मिट्टी के पुतले , वह भी पहचाने ।
सो…! , भोर हो चला है ,
हे राही नाविक-मतवाले ;
कश्ती संवार , ले हाथों में पतवार ।
चल….! आगे बढ़….! ,
सागर के लहरों को चीर ;
कर उस पर विजयी वार…!!!!!
चल….! आगे बढ़ …!
सागर के लहरों को चीर ;
कर उस पर विजय वार….!!!!!!
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
१५ / ३ / २०२०