नारी सशक्तिकरण एवं नारी संस्कार
नारी सशक्तिकरण व नारी संस्कार
कालचक्र अबाध गति से चल रहा है । पौराणिक कालों मे पूर्वजो की श्रंखला मे आदि पुरुष मनु एवम शतरूपा का वर्णन है । जिनसे इस सृष्टि की रचना हुई है । यह तो स्पष्ट है की सृष्टि की संरचना मे नर –मादा जाति का ही योगदान रहा है । जीवन के लक्षण जैसे आहार ,उत्सर्जन , विचरण, श्वसन व काम क्रिया को प्रधान लक्षण माना गया है । वनस्पति या जीव इन लक्षणो के आधार पर ही जीवित या मृत माना जाता है ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज से अलग नहीं रह सकता है । समाज की एक मर्यादा ,एक परंपरा होती है । जातिगत व्यवस्था होती है । शिक्षित –अशिक्षित सभी व्यक्ति इसेजानते व मानते हैं । इसका पालन करते हैं । इसी समाज मे ईश्वर की परम श्रेष्ठ रचना स्त्री का दर्जा अत्यंत उच्च माना गया है । उसे देवी कहा गया है । मातृ रूप मे उसे रक्षक ,पालक व सुखसमृद्धि की दाता कहा गया है । वर्तमान समय मे भी नारी का स्थान पुरुष के समकक्ष माना गया है । इसे वैधानिक मान्यता प्राप्त है ।
शैशव काल से ही अपने सुकोमल व्योहार से स्वजनो का हृदय जीतने वाली कन्या घर की रौनक होती है । अपनी त्याग भावना , मेहनत ,लगन के बल पर इन कन्याओ ने घर –घर का मान बढ़ाया है । वही विपरीत परिस्थितियो मे माँ बाप का मनोबल बढ़ाया है , भाइयो को सहारा दिया है । उनका मार्गदर्शन किया है । उन्हे अच्छे बुरे की पहचान व सही मार्ग चुनने का रास्ता दिखाया है । सामाजिक परम्पराओ का पालन करते हुए समाज को नई दिशा देने की कोशिश की है ।
यह स्वाभाविक है की स्त्री –पुरुष मे आकर्षण होता है । परंतु सामाजिक दायरों मे रह कर अपने ख्वाबो के राजकुमार को चुनने का अधिकार उन्हे है । यह व्यवस्था कुछ ही समाज मे सीमित है । कन्या जब यौवन की दहलीज पर कदम रखती है तो उसे शारीरिक ,मानसिक एवम विचारो मे विकास की झलक मिलती है । संस्कारो का पुट भी मिलता है तो अल्हड्पन की झलक भी मिलती है । अपनी हदों मे रहते हुए माता पिता उसे शिक्षित करते हैं । अपने पैरों पर खड़े करने की कोशिश करते हैं । इस समाज मे अच्छे –बुरे ,सज्जन –दुर्जन , मृदुभाषी –कटुभाषी , ईर्ष्यालु –दयालु , खिल्ली उड़ाने वाले आलोचक –सहानुभूति रखने सभी तरह के मनुष्य विधमान हैं ।
मनुष्य के संस्कारो का निर्माण उनके पालन –पोषण व शिक्षा –दीक्षा पर ,व घर के माहौल पर निर्भर करता है । उनकी सकारात्मक –नकारात्मक सोच विचारो पर निर्भर करता है । कुछ व्यक्ति स्वार्थी ,आत्मकेंद्रित होते है वे केवल अपनी ही सोच रखते हैं । कुछ दूसरों के बारे मे न केवल अच्छे विचार रखते हैं , बल्कि उनकी देखभाल भी करते है । सामाजिक दृष्टिकोण इसी पर निर्भर करता है ।
नारी घरजनित संस्कारो के माध्यम से इस समाज का अंग है । सुग्राह्य एवम सुकोमल भावनाओ का पुंज है । उसे पल्लवित व पुष्पित होने दिया जाए ना कि उसकी सुकोमल भावनाओ परकुठारघात किया जाए । स्त्री के भाव इतने कोमल होते हैं कि जरा सी ठोकर या चोट वो जीवन भर याद रखती है , चाहे ठुकराने वाला उसका पिता या भ्राता , पति या अन्य कोई भी हो । ताउम्र टीस सहने वाली नारी किसी अनहोनी ,दुर्घटना कि आशंका से ही घबरा जाती है । जीवन का मार्ग बदल सकती है । यदि जीवन के किसी मोड पर कोई दुर्घटना जैसे बलात्कार , तेजाब फेकना या हमला करना आदि हो जाती है तो स्त्री का जीवन नर्क बन जाता है । सुकोमल हृदया नारी कुंठित ,भयभीत हो जाती है । उसका सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है । नित्य नए व्यंग बाण उसके कोमल आहत भावनाओ पर तुषारपात करते हैं । उसका खिला गौरवान्वित चेहरा मुरझा जाता है ,रह-रह कर वो वाकया जब उसे याद आता है तो वह तिल –तिल एक दिन मे सौ मौत मरती है । माता –पिता भाई बहन तक इस व्यथा का दर्द कम नहीं कर सकते हैं । सहानुभूति का हर शब्द ऐसे चुभता है जैसे उसे शर शैया पर सुला दिया गया है । कलंक व कटुता उसके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं ।
कालचक्र तेजी से घूमता है स्त्री का स्वभाव एकतेजस्वी स्वाभिमानी स्वभाव है । यदि स्त्री इस अंधकार रूपी काली रात से लड़ कर प्रकाश रूपी जिंदगी जीना चाहती है तो उसे अपने अधिकारो के लिए लड़ना होगा । संघर्ष को अपनाना होगा । हृदय कि आग को जलाए रखना होगा । अपनी अस्मिता व अस्तित्व कि लड़ाई कोप्रत्येक नारीसमाज की लड़ाई मान कर लड़ना होगा । उसके एक कदम आगे बढ्ने से सौ कदम उसके साथ होंगे । जीवन के इस अभिनव प्रयोग मे न्याय ,कर्म व समाज का भी अभूत पूर्व योगदान होगा । जीवंत समाज की यही मर्यादा है । अच्छाई की बुराई पर यही जीत है । यही नारी का दैवीय गुण है ।
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव