नहीं बची वो साख पुरानी,
नहीं बची वो साख पुरानी,
खोई खोई पहचान सारी,
खामोशी भी पूछतीं खुद से,
लगती नहीं जानी पहचानी।
द्वंद्व भीतर भी और बाहर भी,
तो फिर कैसे गढ़ें अस्तित्व की
कहानी?
नापकर देखें कितनों ने शहर के शहर,
सड़क के सड़क भी।
फिर भी ढ़ूढते रहे सवाल,
जवाबों की जबानी।
समझते नहीं जब समय की चाल,
तो फिर मेहनत भी हो जाती पानी।