नया जमाना
बहुएं तो हैं जय और वीरू,
लेकिन सास न गब्बर।
एक के बदले बीस सुनाती,
दिखती जैसे बब्बर।
बहुओं को कोई जला न पाएं,
मिट गया सारा खतरा।
बहू बैठी यू ट्यूब चलाये,
कुछ न कह पाये भतरा।
अगर सास कभी त्योरी भींचे,
बहु का मुंह भी गर्जा।
कहती हम तुम बहु इस घर,
है समान अब दर्जा।
मैं बर्तन को साफ करूं तो
तुम करो झाड़ू पोछा।
मिल जुल के अब चले गृहस्ती,
खास कोई न कोई ओछा।
मैं तुम्हें मानूँ तुम मुझे मानो
कुछ न हो मनमाना।
हक़ हुकूक हैं एक समान,
आया है नया जमाना।
सतीश सृजन लखनऊ,