नदी
चोट खाती पर्वत से गिरकर
बहती है नदी
कुछ रूठी, कुछ सहमी सी
अलग रास्ता बनाती है नदी
चल देती है अनंत की ओर
कठिनाइयों का सामना करते
चट्टानों से टकराती हुई
एक सच्चे साधु की तरह
सहनशील होती है वह
कभी पर्वतों का चरण स्पर्श करती
तो कभी चट्टानों के सिर से होकर
वनों की ओर
दौर लगाती है नदी
अंततः थक और हार कर
बदल लेती है वह
अपना पथ, अपना रास्ता
और मिल जाती है
समुद्र से जाकर
अर्थात वह शून्य से
शून्य की ओर चलती है
और फिर शून्य में
समा जाती है नदी।