* नजरें करम हो अब हम पे कैसे *
सफ़र जिंदगी का सुहाना हो कैसे
नजरें करम हो अब हम पे कैसे
रूहानी ग़ज़ल है रूहानी सफ़र है
हक़ीक़त बने अब हर ख़्वाब कैसे
आना कभी आना कभी मेरी गली
अरमां है पाले दिल-मेहमान जैसे
आते कभी हैं और जाते कभी हैं
दिल का नहीं अब कोई ठिकाना
जाता इधर कभी जाता उधर हैं
बनता है मजनूं बनता है जोकर
होता नहीं है किसी का ये नोकर
खाता है ठोकर होकर ये अपना
सफ़र जिंदगी का सुहाना हो कैसे
नजरे करम हो अब हम पे कैसे
मासूम बनकर लूटा जो हम को
कैसे भुला दे उस ग़म को ऐसे
आती है ख़ुशबू गुलशन से तेरे
महका दो जीवन-गुलशन को मेरे
सफ़र जिंदगी का सुहाना हो कैसे
नजरें करम हो अब हम पे कैसे ।।
?मधुप बैरागी