नख से शिख तक सजी प्रकृति
नख से सिख तक सजी प्रकृति, फूल रही धरती सारी खिला हुआ है पूर्ण चंद्र, शोभा है अति न्यारी
नभ में स्वच्छ चांदनी छिटकी, एक टक रही निहारी
मंद मंद चल रही बसंती, सुध बुध सभी विसारी
कर सोलह श्रृंगार, मन बगिया फूल रही है
लगी हुई है दृष्टि द्वार पर, प्रियतम को ढूंढ रही है
जूही चंपा और चमेली, केसर महक रही है
सतरंगी फूली हैं फसलें, खेतों में झूम रहीं हैं
फूल रही रातरानी, फूल गए हरसिंगार
मधु कामिनी रजनीगंधा फूल गई कचनार
महुआ मदांध हुआ, गुलमोहर चढ़ा खुमार
अमबा वौराए रहे, मनवा के खुले क्यार
गेंदा और गुलाब केवड़ा, बागियों में गमक रहा है
मंद सुगंध पवन का झोंका, मन को भेद रहा है
आए हैं ऋतुराज, पिया परदेश बसे हैं
लिए मिलन की आस, जिया तरसे है
मन के वन में पलाश, ऐंसे फूल रहा है
दावानल की आग से जैंसे, जंगल झुलस रहा है
छाया है उल्लास जगत में, बसंत उमंग जगाता है
सप्त सुरों में गीत प्रेम के, बिरही मन मेरा गाता है जाओ बसंती प्रेम संदेशा,मेरे प्रियतम को दे आओ
आग लगी है तन मन में, आकर प्यास बुझा जाओ सुरेश कुमार चतुर्वेदी