नंगापन
नंगापन
कुछ खोता जा रहा है मेरा
अस्तित्व की ओस गर्म हवा के सम्पर्क में आ रही है
और अंश अंश कर उड़ती जा रही है।
अपने ही सिद्धांत और स्वार्थ का संघर्ष
अपनी ही आँखो के सामने दिख रहा है।
कभी ख़ुद को अंदर से नंगा महसूस किया है?
महसूस नहीं देखने की बात कर रहा हूँ मैं।
मैंने देखा है ख़ुद को नंगा अंदर से।
जब अस्तित्व आहिस्ता आहिस्ता
अंदर से खोखला होता जाता है
तो अंततः
आप ख़ुद को नंगा महसूस करते है
कभी स्पर्शों से सिद्धांत बनाया है?
मैंने बनाया है स्पर्शों का सिद्धांत।
बचपन के बनाए उन पवित्र सिद्धांतों
की क़ब्र भी बनायी है मैंने।
आदमी पहले बातों से सिद्धांत बनाता है।
फिर लिखकर और अंत में थककर आँखो
के सिद्धांत बनते है।
पर मैंने स्पर्शों के आधार पर
ख़ुद के जीने का सिद्धांत बनाया है ।
पर क्या करूँ जब छोटी -छोटी बातें
छोटे- छोटे स्वार्थ छोटे- छोटे दीमक मेरे
सिद्धांतों के ग्रंथ को चट करते जा रहे है।
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा
और जो बचा है उसे इंतज़ार है तुम्हारे स्पर्श का
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा।
दिल दिमाग़ जिगर ग़ुर्दा ख़ून क्या
आख़िर क्या खोता जा रहा है मेरा?
वास्तव में ये सारी चीज़ें अंदर से
अपने अपने आयत में कमी करती जा रही है
और मेरे अंदर के पोशाक को धिस -घिस कर
नंगा करने की कोशिश कर रही है।
ये समय भी अजीब सी चीज़ है
इसके पास सिर्फ़ तीन कपड़े है
भूत,वर्तमान और भविष्य और
इन तीन कपड़ों के बनने की
प्रक्रिया भी अजीब है
एक दिन की आकार का धागा
आगे की ओर आकर लगता है
दूसरा उसी आकार का धागा
पीछे से निकल जाता है
कपड़े की लम्बाई चौड़ाई
एक समान ही रह जाती है।
पर कुछ लोग ऐसे भी होते है
जो इन कपड़ों के बनने की प्रक्रिया
को जानने के चक्कर में पूरे
कपड़े को उधेड़ डालते है और ख़ुद को
नंगा कर डालते है।
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा।
और जो बचा है उसे इंतज़ार है
तुम्हारी पोशाक का
ताकि मेरा नंगापन फिर से
उधेड़ा जा सके।
यतीश १२/४/१९९७