‘धुँआ- धुँआ है जिंदगी’
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
‘धुँआ- धुँआ है जिंदगी’
दर्द को पी कर जो लोग जिया करते हैं ।
लोग तो उनको भी ताने दे दिया करते हैं ।
तुम भला किस मिजाज के इंसान कहे जाओगे ?
लोग चुभाते रहेंगे नश्तर और तुम सहे जाओगे ।
मैं नहीं कहता के पलट के मारो उनके गाल पर चांटा ।
ये भी कोई बात हुई के जुल्म के बदले जुल्म किए जाओगे ।
चलो ढूंढते हैं हम मिलके कोई राह अनोखी इस मसले की ।
चलो ढूंढते हैं हम मिलके कोई राह अनोखी इस मसले की ।
क्या मिलेगा जवाब मेरे जनाब जब आप किसी मजलूम से पूछने जाओगे ।
छोड़ दो जीना इस जहालत की जिंदगी जीने से तो बेहतर होगा ।
छोड़ दो जीना इस जहालत की जिंदगी जीने से तो बेहतर होगा ।
और कब तक इन लगातार के हादसों से टकराओगे ।
धुआँ धुआँ होती जा रही है जिंदगी मेरे अज़ीज़ ।
पोंछ लो आँसू अब कुछ नहीं होने वाला ।
कितना गिरोगे आखिर खाक में ही मई जाओगे ।
दर्द को पी कर जो लोग जिया करते हैं ।
लोग तो उनको भी ताने दे दिया करते हैं ।
तुम भला किस मिजाज के इंसान कहे जाओगे ?
लोग चुभाते रहेंगे नश्तर और तुम सहे जाओगे ।
तुमसे नहीं होता तो किसी मजबूत का सहारा ढूंढो ।
लता को देख कर चढ़ते किसी पेड़ पर अरे कुछ तो सीखो ।
हर मुश्किल का होता है हल इस दुनिया में ।
बादशाह होना हो मुश्किल तो बादशाह से दोस्ती सीखो ।
बहुत हुआ अब निकल भी आओ जहालत की दलदल से
ये लो रुमाल हाँथ मुहँ धो लो और अपने आँसू पोंछो ।
चलो ढूंढते हैं हम मिलके कोई राह अनोखी इस मसले की ।
आओ बैठो मेरे यार चलते हैं , दुनिया को मुस्कुरा के देखो ।
दर्द को पी कर जो लोग जिया करते हैं ।
लोग तो उनको भी ताने दे दिया करते हैं ।
तुम भला किस मिजाज के इंसान कहे जाओगे ?
अरुण , लोग तो चुभाते रहेंगे नश्तर और तुम सहे जाओगे ।