धर्म का मर्म समझना है ज़रूरी
इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि आज के समय में धर्म के विषय पर बात करना उस पर लिखना या किसी भी प्रकार की टीका -टिप्पणी करना बेहद संवेदनशील हो गया है, इतना की धर्म पर लिखने या उस पर बोलने से पहले कई बार सोचना पड़ता है, एक प्रकार से कहें तो आज धर्म की संवेदनशीलता ने लोगों से उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार छीन लिया है।
यह वास्तविकता भी अपनी जगह है कि जन्म से मरण तक हमारा जीवन धर्म से जुड़ा होता है, हम जिस धर्म में जन्म लेते हैं उसी धर्म के होकर रह जाते हैं और यह हमारे धर्म के प्रति आस्था होती है जिसके कारण हमें सभी धर्मों से अच्छा अपना धर्म लगने लगता है, ठीक उसी तरह जिस तरह हमें सबसे प्यारी अपनी माँ लगती है , जिसमें कोई बुराई भी नहीं लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम केवल इंसान न होकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख़, ईसाई बन जाते हैं और इससे भी अधिक अफ़सोस की बात यह है कि धर्म का चोला पहनकर स्वयं को धार्मिक कहलाने वाले लोग धर्म के मर्म की परिभाषा भी नहीं जानते, वो नासमझ इतना भी नहीं जानते कि जिस धर्म को वो अपनी नफ़रतों का माध्यम बना रहें हैं उस धर्म का अर्थ ही सबको जोड़कर ,संगठित करके रखना होता है।
बहरहाल बात जब धर्म की होती है तो हमारी आस्था और विश्वास की भी होती है कि हम अपने धर्म को कितना समझते हैं कितना मानते हैं और उस पर कितना अमल करते हैं, साथ ही यह समझना भी बहुत आवश्यक है कि अल्लाह हो या भगवान उसकी दिन रात इबादत करना या पूजा पाठ करना धर्म का उद्देश्य नहीं है इबादत के तरीके हो या पूजा पाठ के सभी आपके स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाने के लिए हैं ,वो आपके सजदो का मोहताज नहीं उसके लिए उसके पास फ़रिश्तों की कमी नहीं, धर्म का उद्देश्य तो बस इतना है कि आप उसके बताये हुए रास्ते पर चल एक अच्छा इंसान बने सब कुछ आपके लिए आपके फायदे के लिए है उसे आपसे कुछ नहीं चाहिए , इंसान होकर अगर हम दूसरे इंसान को नफ़रत की देखते हैं तो हम उस इंसान को नहीं बल्कि अपने रब को देख रहे होते हैं हम सबको उसने ही तो बनाया है फ़िर इंसान होकर इंसान से नफ़रत करना उससे नफ़रत करने जैसा है वो तो हम सबको एक दृष्टि से ही देखता है फ़िर हम कौन होते हैं एक दूसरे में भेदभाव करने वाले ? धार्मिक बनने से कहीं अच्छा है हम और आप एक अच्छा इंसान बने, इंसानियत से ख़ाली इंसान,इंसान कहलाने के योग्य नहीं होता तो धार्मिक कहां से हो सकता है, क्योंकि हर धर्म शान्ति, अहिंसा, दया,मानवता, सच्चाई की शिक्षा देता है, घृणा, नफ़रत ऊंच- नीच ,भेदभाव का तो किसी भी धर्म में कोई स्थान ही नहीं है तो फिर हम किसका अनुसरण करना आरम्भ कर देते हैं इस पर गंभीरता के साथ चिंतन मनन करने की आवश्यकता है और सच कहूँ तो मैं आज तक भेद नहीं कर पाई, उसको मानने के उसको समझने के तरीके ही तो अलग होते हैं उद्देश्य तो सबका एक ही होता है मानते तो सब एक रब को हैं फिर आपस में नफ़रतों का औचित्य समझ नहीं आता, केवल अभी हम सब अच्छे इंसान बन तो हमें मरने के उपरांत स्वर्ग प्राप्त हो ऐसा इन्तज़ार करने की आवश्यकता कभी नहीं होगी हमारी धरती ही स्वर्ग बन जायेगी, अपने लिए और अपने रब के लिए दिल से कोशिश कीजिए कि आप धार्मिक बनने से पहले एक अच्छा इंसान बने ।
डाॅ फौज़िया नसीम शाद