धर्म का आतंक
क्या हो गया है यार,
हर राह पर, हर मोड़ पर
हर रिस्ते में, हर जोड़ पर
छुप गया है सब कुछ
वस धर्म-धर्म-जाति-धर्म का फ़साद ही नजर आता है..?
ये कैसी हवा बह चली,
भूलकर स्वधर्म अपना,
भूलकर जीव धर्म अपना
भूलकर धर्म का निचोड़ चखना
वस दूसरों का धर्म कमजोर ही नजर आता है.?
कपड़ो के रंग में
चलने-उठने-बैठने के ढंग में
प्रशंसा और व्यंग में
थाली में रखे खाने में
मिल बैठकर बातों का रस पाने में
वस धर्म का फ़साद ही नजर आता है..?
पूजास्थलों तक,
कर्मकांडों तक
समाज के व्यवहार तक
वेवस-लाचार के विलाप तक
सब ठीक है अपना-अपना धर्म
उस विस्वास में ऊंच-नीच का भाव नजर क्यों आता है..?
जन्म-मृत्यु का तरीका
पेट भरकर हँसने का तरीका
मार खाकर आंसूओं के बहने का तरीका
हड्डी-मांस का तरीका
खून-वीर्य का तरीका
बत्तीस दांत और एक जीव का तरीका एक है
फिर भी इंसान को इंसान का छोटा सा ये भेद
ख़ुदा से भी बड़ा नजर क्यों आता है..?