धरा –गीत
धरा –गीत
झुक देख रहा अंतरिक्ष पूछे ,”धरा तुम क्यों उदास हो?
चुपचाप देखती सी सोचती ,’लगता कोई बात खास हो”
वसुधे! का पीला चेहरा मुरझाया अकुलाया देखे नाश है
भूमि की हरयाली कौन ले जा रहा, उठा ये प्रश्न पास है.
न अब पहली सी तीज रही न सावन में किशोरी झूलना
बस सूखापन और नष्टता का हो रहा प्रयत्न को चुनना।
जो मेरे या जन्में और पले भूल गए नित-नियम जो मिले
पाश्चत्य रंग में हो कर बन गए वो नकली काग़ज़ी खिले।
ऋतुओं का वह रूप नहीं मौसम का दिखता सा समय नहीं
जीवन का अब कोई ढंग नहीं इंसां का भी कोई धरम नहीं।
ना जाने ! मेरे मानस पुत्रों को नजर लग गई किसकी सोचूँ
फिर भी दोष मुझे देते भू बदल गयी अब वो पहली नहीं नीचू।
आँख देख आंसू मन बिहिल हुआ गगन का झुका समझने को
उसकी ठंडी कराह और गर्जन से जल ही जल हो बाढ़ डराने को.
हरियाली सम्पन्न सुन्दरी धरणी फूलों में तू हँसती-खिलती
त्यौहारों में सुंदर लगती गाती तू मुस्काती सम्पन्नता मिलती।
स्वरचित -रेखा मोहन पंजाब