धड़कन
खुद की धड़कन
नही सुन पाता हु
अब सीने में धड़कता ही
नही ह्रदय तो कही और है
खुद को आइने के सामने
रख कर उसको ढूढता हूँ
अगले ही क्षण टूट कर
बिखर जाता हू
उसकी आवाज तक
नही सुनाई देती
कोई आवरण चढ़ाया
है समय ने कानो पर
महसूस करता हुँ तो सिर्फ एक सुखद
अहसास इस प्रेम को चाहिए क्या
समर्पण सिर्फ समर्पण
जितना आसान है
शब्दो उससे
कई ज्यादा
वास्तविकता में कठिन
क्षणिक आवेशित भावनाओ
के सामने धरी रह जाती है
अनुभव से उपजी समझ