दोहे
दोहा सलिला:
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अनिल अनल भू नभ ‘सलिल’, पंचतत्वमय सृष्टि।
मनुज शत्रु बन स्वयं का, मिटा रहा खो दृष्टि।।
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‘सलिल’ न हो तो किस तरह, हो निर्जीव सजीव?
पंचतत्व संतुलित रख, हो शतदल राजीव।।
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जीवन चक्र चला सलिल, बरसे बह हो भाप।
चक्र रोककर सोचिए, जी पाएँगे आप?
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सलिल न तो मरुथल जगत, मिटे किस तरह प्यास?
हास न होगी अधर पर, शेष न होगी आस।।
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अगर चाहते आप हो, सकल सृष्टि संजीव।
स्वच्छ सलिल-धारा रखें, खुश हों करुणासींव।।
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