दोहा सप्तक . . . . मुखौटे
दोहा सप्तक . . . . मुखौटे
लगे छुपाने आजकल , सब असली पहचान ।
आडम्बर से युक्त है, अपनों की मुस्कान ।।
अनगिन परतें आज का, रखता है इंसान ।
उसके असली रूप की, कैसे हो पहचान ।।
आज मुखौटों का बड़ा, आकर्षक संसार ।
मानव इसकी आड़ में, सफल करे व्यापार ।।
मूढ़ बनाकर हो रहा, कितना खुश इंसान ।
बन जाऐ कब स्वयं वो, इससे है अंजान ।।
अन्तस में कुछ और है, अधरों पर कुछ और ।
नयन विकलता से भरे, देख बदलता दौर ।।
परिधानों से सभ्य जो, लगते हैं इंसान ।
खंडित उनका आचरण, करे सभ्य पहचान ।।
परिधानों से व्यक्त कब, होती है पहचान ।
आभासी संसार की, आभासी मुस्कान ।।
सुशील सरना / 12-12-24