दोहा सप्तक. . . . . मन
दोहा सप्तक. . . . . मन
मन से मन मिल जाय तो, मन के मिटते भेद ।
आपस के हर बैर के, मिट जाते सब छेद ।।
मन मन्दिर है प्यार का, मन इच्छा का धाम ।
मन के हर संग्राम का, मन अन्तिम विश्राम ।।
मन में हाला पाप की, मन व्यसनों का धाम ।
मन भोगों का वरण करे, तन होता बदनाम ।।
मन को मन का मिल गया, मन में ही विश्वास ।
मन में भोग-विलास है, मन में है सन्यास ।।
मन ही मन का सारथी, मन ही मन का दास ।
मन में साँसें भोग की, मन में है बनवास ।।
मन माने तो भोर है, मन माने तो शाम ।
मन के सारे खेल हैं, मन के सब संग्राम ।।
मन मंथन करता रहा, मिला न मन का छोर ।
मन को मन ही छल गया, मन को मिली न भोर ।।
सुशील सरना / 17-6-24