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17 Jun 2024 · 1 min read

दोहा सप्तक. . . . . मन

दोहा सप्तक. . . . . मन

मन से मन मिल जाय तो, मन के मिटते भेद ।
आपस के हर बैर के, मिट जाते सब छेद ।।

मन मन्दिर है प्यार का, मन इच्छा का धाम ।
मन के हर संग्राम का, मन अन्तिम विश्राम ।।

मन में हाला पाप की, मन व्यसनों का धाम ।
मन भोगों का वरण करे, तन होता बदनाम ।।

मन को मन का मिल गया, मन में ही विश्वास ।
मन में भोग-विलास है, मन में है सन्यास ।।

मन ही मन का सारथी, मन ही मन का दास ।
मन में साँसें भोग की, मन में है बनवास ।।

मन माने तो भोर है, मन माने तो शाम ।
मन के सारे खेल हैं, मन के सब संग्राम ।।

मन मंथन करता रहा, मिला न मन का छोर ।
मन को मन ही छल गया, मन को मिली न भोर ।।

सुशील सरना / 17-6-24

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