दोहा पंचक. . . .
दोहा पंचक. . . .
हर बंधन से मुक्ति ही, कहलाती निर्वाण ।
आदि – अन्त के मध्य का, जीवन तन में प्राण ।।
श्वास नाद है जीव के, जीवन का संवाद ।
नाद मौन जैसे हुई, मिटे सभी उन्माद ।।
तन में चलती साँस है, जीने का विश्वास ।
एक विभा है आस की, एक अंत की दास ।।
सुख- दुख का अभिलेख हैं, तन में चलती साँस ।
तन मिटता मिटती नहीं, इच्छाओं की प्यास ।।
मिटते ही लो हो गया, बोझ देह का नाम ।
धाम पुराना छोड़ कर, देह चली नव धाम ।।
मरघट अन्तिम धाम ।।
सुख जीवन की प्यास है, दुख, सुख का बनवास ।
दोनों का है जीव के, अन्तर्घट में वास ।।
सुशील सरना / 17-5-24