दोहा पंचक. . . . शृंगार रस
दोहा पंचक. . . . शृंगार रस
हुआ द्वार की ओट से, जब उनका दीदार ।
धक से यह दिल रह गया, देख स्वप्न साकार ।।
अक्सर उनसे नित्य ही, होता स्वप्न मिलाप।
मिटता मन के व्योम का, मिलन क्षुधा संताप ।।
कहाँ हकीकत में कभी , स्वप्न मिलें साकार ।
पलक लोक की कल्पना, करे यहाँ शृंगार ।।
वातायन के पट खुले , हुआ नयन अभिसार ।
मिलने की करने लगे, तृषित अधर मनुहार ।।
किया गगन का साँझ ने , अलबेला शृंगार ।
लहर – लहर पर लालिमा, करे प्रेम गुँजार ।।
सुशील सरना / 5-12-24