दोहा पंचक. . . . माटी
दोहा पंचक. . . . माटी
माटी- माटी ही गई, माटी की पहचान ।
माटी में ही खो गया, माटी का परिधान ।।
देह जली माटी हुआ, माटी का इंसान ।
माटी में ही मिट गया, माटी का अभिमान ।।
माटी में होता रहे, जब तक श्वांस प्रवाह ।
तब तक हर रिश्ता करे, माटी संग निबाह ।।
माटी में माटी मिले , माटी से क्या बैर ।
जब तक साँसें माँगना, बस माटी की खैर ।।
मिट कर भी मिटती नहीं, इस माटी की गंध ।
मौन कर्म विचरण करे, जग में हो निर्बंध ।।
सुशील सरना / 29-5-24