दोहा पंचक. . . . . देह
दोहा पंचक. . . . . देह
कौन निभाता है भला, जीवन भर तक साथ ।
अन्तिम घट पर छूटता, हर अपने का हाथ ।।
तन में बजती डुगडुगी , साँसों की दिन -रात ।
क्या जाने कब नाद यह, दे जीवन को मात ।।
मौन देह से सूक्ष्म का, जब होता निर्वाण ।
अनुत्तरित है आज तक, कहाँ गए वो प्राण ।।
देह बंध को तोड़ कर, चला सूक्ष्म उस पार ।
मौन देह के साथ तो , बस काँधे थे चार ।।
आभासी संसार का, आभासी हर ठौर ।
यह दुनिया कुछ और है, वो दुनिया कुछ और ।।
सुशील सरना / 4-11-24