दोहा ग़ज़ल. . .
दोहा ग़ज़ल….
उलझन तो बस एक है, जाना है उस पार ।
जग के झूठे तीर हैं, झूठी है पतवार ।
तृष्णा के अम्बर यहाँ, तृप्ति है आभास –
अवगुंठन में जीत के , मुस्काती है हार ।
विषम काल में ईश ही, काटे दुख के पाश –
मोह माया के पंक में, जीव हुआ लाचार ।
जीवन में सुख-चैन के, होते हैं दिन चन्द –
जो छूटे वो मोड़ फिर, कब लौटे हैं यार ।
मोह माया के पाश में, उलझा रहता जीव –
जकड़े रखता जीव को, मायावी संसार ।
सुशील सरना /