दोहा-ओशो
ओशो चिंतन: दोहा मंथन २
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जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है।
दो औरों के दोष पर, देता पल-पल ध्यान।
दिखें स्वदोष उसे नहीं, जानें अंध समान।।
ध्यान तुम या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हो, या दूसरों के दोषों की तरफ दे सकते हो, दोनों एक साथ न चलेगा क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है।
या अपने या और के, दोष सकोगे देख।
दोनों साथ न दिख सकें, खींचे-मिटे कब रेख।।
जब तुम दूसरे पर ध्यान देते हो, तो तुम अपने को भूल जाते हो। तुम छाया में पड़ जाते हो।
ध्यान दूसरे पर अगर, खुद को जाते भूल।
परछाईं या ओट में, ज्यों जम जाती धूल।।
और एक समझ लेने की बात है, कि जब तुम दूसरों के दोष देखोगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे तुमसे ज्यादा पापी हैं, तुमसे ज्यादा बुरे हैं, तुमसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं।
बढ़ा-चढ़ा परदोष को, देखे मन की चाह।
खुद कम पापी; अधिक हैं, सोच कहे मन वाह।।
इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हूं दूसरे गलत हैं। बिना ठीक हुए अगर तुम ठीक होने का मजा लेना चाहते हो, तो दूसरों के दोष गिनना।
मैं हूँ ठीक; गलत सभी, सोच अहं हो तृप्त।
ठीक हुए बिन ठीक हो, सोच रहो संतृप्त।।
और जब तुम दूसरों के दोष गिनोगे तो तुम स्वभावत: उन्हें बड़ा करके गिनोगे। तुम एक यंत्र बन जाते हो, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती है।
दोष अन्य के गिने तो, दिखें बड़े वे खूब।
कार्य यंत्र की तरह कर, रहो अहं में डूब।।
और जो दूसरे के दोष बड़े करके देखता है, वह अपने दोष या तो छोटे करके देखता है, या देखता ही नहीं। अगर तुमसे कोई भूल होती है, तो तुम कहते हो मजबूरी थी। वही भूल दूसरे से होती है तो तुम कहते हो पाप।
लघु अपने; सबके बड़े, दोष बताते आप।
मजबूरी निज भूल कह, कहो अन्य की पाप।।
अगर तुम भूखे थे और तुमने चोरी कर ली, तो तुम कहते हो, मैं करता क्या, भूख बड़ी थी! लेकिन दूसरा अगर भूख में चोरी कर लेता है, तो चोरी है। तो भूख का तुम्हें स्मरण भी नहीं आता।
खुद भूखे चोरी करी, कहा: ‘भूख थी खूब।’
गैर करे तो कह रहे: ‘जाओ शर्म से डूब।।
जो तुम करते हो, उसके लिए तुम तर्क खोज लेते हो। जो दूसरा करता है, उसके लिए तुम कभी कोई तर्क नहीं खोजते।
निज करनी के वास्ते, खोजे तर्क अनेक।
कर्म और का अकारण, कहते तजा विवेक।।
तो धीरे-धीरे दूसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और तुम्हारे दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दूसरे के दोष तो आकाश छूने लगते है, -गगनचुंबी हो जाते हैं-तुम्हारे दोष तिरोहित हो जाते हैं।
दोष अन्य के महत्तम, लघुतम अपने दोष।
उसके हों आकाश सम, निज के लुप्त; अ-दोष।।
तुम बिना अच्छे हुए अच्छे होने का मजा लेने लगते हो। यही तो तथाकथित धार्मिक आदमी के दुर्भाग्य की अवस्था है
ठीक हुए बिन, ले रहा मजा, ‘हो गया ठीक।’
तथाकथित धर्मात्मा, बदकिस्मत खो लीक।।
? ❣ *ओशो* ❣ ? एस धम्मो सनंतनो, भाग -2, प्रवचन -17