दोरे-हाजिर से डर रहा हूँ मैं,
दोरे-हाजिर, से डर रहा हूँ मै,
रोज बेमौत मर रहा हूँ मै।
ढूँढना है मुझे हुनर अपना,
खुद में गहरा उतर रहा हूँ मै।
ग़म में भी खुलके मुस्कुराया हूँ,
ऐसा’ दिलकश बशर रहा हूँ मै।
दुख मिले मुझको जिसकी जानिब से,
फिर उसे याद कर रहा हूं मै।
देखा हर सिम्त बेहयाई ही,
जिस तरफ भी गुजर रहा हूँ मै।
खार समझा गया “सिवा” लेकिन,
बनके खुशबू बिखर रहा हूँ मै।
सिवा संदीप गढ़वाल