देखी देखा कवि बन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
कुर्ता धोती उज्जर गमछा,
पांव में सैंडिल काली।
बड़े बाल घुंघराले करके,
भाल तिलक की लाली।
गायत्रीपीठ का लम्बा झोला,
लेकर रोब में मैं भी तन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
दसवीं पास हूँ अनुकम्पा से,
हिंदी में हाथ तंग।
फिर भी जिद्दी मन न माने,
चढ़ा कवि का रंग।
स्वर व्यंजन ज्ञान न फिर भी,
छंदों से तकरार ठन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
पहली कविता लिखा जतन से,
लेकिन हो गयी चूक।
लिखना था ‘मुख’ जिस पंक्ति में,
वहां लिख दिया ‘मूक’।
पत्नीजी के मुख वर्णन में,
बेलन का प्रहार हन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
दूजी कविता मैंने गाया,
प्रेम जगत का सार।
प्रेम सिंह और जगत सिंह में,
थी आपस में रार।
दोनोँ की तकरार में देखो,
कविता के संग मैं भी सन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
समझाया खूब प्रेम ने मुझको,
बोले दूंगा पिज्जा।
बोले लिखिये निज कविता में,
प्रेम जगत का जीजा।
जैसे कविता सुना जगत ने,
उसका माथा तुरत भन्न गया।
देखी देखा कवि बन गया।
जगत दहाड़ा सुने बे लेखक,
मारूंगा दो चट्ठा।
अगर नहीं लिखा तू कविता में
प्रेम उल्लू का पट्ठा।
कविता लिखना बहुत कठिन है,
कवि बनने से मेरा मन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
कवि बनने का तजा इरादा,
कटवाये सब बाल।
कवि से अच्छा श्रोता होना,
उसमें नहीं बवाल।
कुर्ता धोती झोला सैंडिल,
लगा था जो सारा धन गया।
देखी देखा कवि बन गया।
-सतीश शर्मा सृजन