दिल्ली दंगा
आओ सब मिल कर एक दूसरे को चिरते हैं
देखते हैं कौन कितना दरिंदा हो सकता है
कौन किसको कितना नोच सकता है ,
जो ज़्यादा वहशी होगा वो विजयी कहलायेगा
पर इसका फ़ैसला कौन सुनायेगा ?
हम इंसान तो जानवर हो गये
इंसान हो कर भी इंसानियत खा गये ,
कुछ नहीं बचा अब इस हालत में
आने वाली पीढ़ियों को क्या देंगे विरासत में ?
अब शर्म से गर्दन नहीं झुकती है
बल्कि बेशर्मी पर तो और भी ज़्यादा तनती है ,
ग़लत हो कर भी तन कर चलते हैं
अपनी ग़लती को भी सही बोलते हैं ,
इतना शोर है हैवानियत के नक्कारखाने में
जरा भी इंसानियत की तूती सुनाई नहीं देती इस ज़माने में ,
बच्चा – बच्चा कॉप रहा है दहशत में
कैसे रहेंगे ज़िंदा इस वहशत में ?
जहाँ देना था सहारा वही खिंच कर ख़ंजर घुसा डाला
घुस कर स्कूलों में एक – एक किताबों को जला डाला ,
सहमी – सहमी ज़िंदगी कैसे क़दम बढ़ायेगी
अपनों की लाशों को घरों की राखों को
अपनी हथेली पर कैसे उठायेगी ?
जब ख़ंजर घुसाओगे तो ख़ुद को कहा पाओगे
ख़ून बोलेगा जब तब क्या नज़र मिला पाओगे ?
सोचो क्या एक भी मौत का हिसाब हो पायेगा
हिसाब करने बैठोगे तो सारा गणित भूल जायेगा ,
स्वार्थी बन कर देश को मत मारो
अरे ! अपने हाथों से अपने देश को सवॉरो ,
तुम्हें देख कर डर से घर में ना घुसे कोई
इतना तो विश्वास दो कि चैन से सोये हर बच्चा हर माई ,
कैसा ये मंज़र है
अपनों की पीठ पर अपनों का ख़ंजर है ,
अपनी नासमझी का प्रमाण हम देते हैं
दूसरों के बहकावे में अपना ही घर फूँक देते हैं ,
दिल है भी की नही हमारे सीने में
पता नहीं कैसे ज़िंदा हैं ?
इतना सब कुछ करके भी
क्या हम शर्मिंदा हैं ?
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 01/03/2020 )