दास्तान
पीछा नहीं छोडऩे वाली वो दास्तां,
भले न हो तेरा, उससे कोई वास्ता.
निकला जब तेरी गली से वो कारवां
क्या सोचा, देखा क्या-क्या, हो जवां
कह न पाये, कुछ कर न पाये पावणा
कैसे पीछा छोडती होणी वही दास्तां.
देखने से भी कर्म बनते बन जाते दास्तां
हो न हो भले, तुम्हारे उनसे कोई वास्ता.
तुम जो सोचते, कर्म बंधन तुम्हारे अपने
आयेंगे घूमकर फिर लेकर अपनी दास्तां
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस