बाइस्कोप मदारी
आज की पीढ़ी को क्या मालूम
क्या होती है राब।
बहुत सी चीजें लुप्त हो गयी
बन गयी एक दम ख्वाब।
सनई पटुआ जोंधरी बर्रे,
मोटरी हो गयी गायब।
कोदौ बगरी और कोलैया,
सांवा गुठली बायब।
धकुली रहट व पुढ़ पुरवाही,
दोगला और बैलगाड़ी।
गुदरी तपता मचिया पीढ़ा
घर से भये उजाड़ी।
बेढ़ई रिंकवच पना फुलौरी,
पूवा,केरमुआ साग।
पहुँची टीका हसुली सब्जा,
ऐरन नहीं सुहाग।
घूंघट और महावार गुम हुआ,
गुम हुई बंजनू पायल।
लिए टोकरी मालिन गुम हुई,
कोई न होता घायल।
डंहकी डोरिया,डफ़ला डफली,
और न रही डुग्गी।
खपरेला तरवहा परछती,
नहीँ रही अब झुग्गी।
सतघरवा सुरबग्घी लीलहर,
झाबर,आईस-पाइस।
लुकनछिपाई,ताई-ताई पुरिया,
गेम न रहा नाइस।
ड्योढ़ी,ढैया नहीं कोई लाता,
सेठ से बीज उधारी।
कथिक की नाच गुम हुआ कीर्तन,
बाइस्कोप मदारी।
उपला ढेर कन्डहुला होता,
भूसा रूम भुसैला।
लकड़ी के बर्तन कहलाते,
कठैली तथा कठैला।
हर जुवाठ व पैना नाधा,
बैल की जोड़ी गोई।
बारी बारी काम करे मिल,
हूंण कहावै सोई।
और बहुत सी चीजें गुम हुई,
कहाँ तक नाम जगाऊँ।
कविता लंबी हो रही सो मैं,
पूर्ण विराम लगाऊँ।
सतीश सृजन