दर किसी के बजी शहनाई है
जाम आंखों से यूँ पिलाई है
लूटने फिर मुझे वो आई है
गर सहारा नही दे सकता तू
तो मिटा दे मुझे दुहाई है
खाक करके गया मुझे जालिम
दर किसी के बजी शहनाई है
दूर मुझसे अगर मिले खुशियाँ
दिल मेरा तोड़ दे खुदाई है
किस तरह गैर हो गया मुझसे
सोचके आँख ये भर आईं है
अब नही है गिला किसी से भी
सब मेरे कर्मों की लिखाई है
हो गया शाख से जुदा अपने
यूँ तो कहने को अपना भाई है
मौज कैसे मियाँ मनाओगे
अब कहाँ बाप की कमाई है
कौन बेजार है मुहब्बत से
हर तरफ इश्क़ की रानाई है
है हिना की महक फिजाओं में
इश्क़ ने ली यूँ अंगराई है
ले लूँ आग़ोश में तुम्हे अपने
ऐ सनम तू मगर पराई है
आ छुपा लूँ तुम्हे मेरे हमदम
ये जहाँ तो बड़ी हरजाई है
मार डाले कहीं नही मुझको
लूटती हर घड़ी जुदाई है
– ‘अश्क़’