दर्पण
दर्पण में प्रतिबिंब में मैं, नैनो के दर्पण में हो तुम।
प्रतिंबिब निहारे तेरा मुझको, तुझको निहारूं मैं।
मन को बना कर दर्पण मैंने, तेरी सूरत ही देखी।
तेरे नैनो की ज्योति ने मुझको बनाया उसमे मोती।
एक दर्पण दूजे को निहारे, दर्पण में दर्पण के इशारे।
ऐसी दुविधा में मुझे डाला, कैसे कोई श्रृंगार संवारे।
भेद न कोई भी छुपाया,मन दर्पण इसने दिखलाया ।
एक प्रतिबिंब दूजा दिखलाए,दर्पण को दर्पण उलझाए ।
बडी अनोखी प्रीत की भाषा, नैनो को दर्पण समझाए।
देख के नैनों के दर्पण में, दर्पण पर है दर्पण इतराए।
स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा
शाहजहांपुर
उत्तर प्रदेश