दरियादिली
इस दिवाली
याद आई वह लड़की
दीये बेचने वाली
याद है उसका भोला मुखड़ा
आंखें कुछ समझाती
करुणा अन्तर्मन की
आकर उसके
होठों पर थम जाती
किया उसे जब
उस ग्राहक ने
कीमत कम
करने को विवश
बोली-बाबूजी कमा रहे लीजिये भलाई का
आप भी कुछ यश
है माता बीमार मेरी
पिताजी को है अंधत्व
इनके निमित्त ही प्रभु ने
शायद
मेरा शेष रखा है अस्तित्व
घर में एक बूढ़ी दादी माँ
वे भी हैं मेरा ही जिम्मा
कैसे रखूँ इन सबकी
जीवित श्वासें
उन की मुझी पर
टिकी हैं आसें
किन्तु आप न समझेंगे
इन में भला क्यों उलझेंगे
सुनकर फिर गर्जा
वह ग्राहक
न कर मेरा समय
व्यर्थ नाहक
मुझसे ही कमाने बैठी है क्या
लूंगा इसी कीमत में
दे दे यदि हो देना
अगले ग्राहक से जो चाहे
तू वसूल कर लेना
ले जाइए बाबूजी
इच्छा हो जितना दे दीजिए
मेहरबानी कर
किसी दूसरे ग्राहक के
सम्मुख न यह बात कीजिए
बोली फिर वह लड़की
मुस्कुराती
कोई बात नहीं बाबू जी
हुआ क्या गर मेरा बटुआ इस बार भी
है खाली
आपको तो बहुत-बहुत मुबारक हो आपकी यह दीवाली
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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