थाह नहीं
तेरा यह गांभीर्य,
लिए है कितनी गहराई?
है किसी को भी यह आभास नहीं।
मांँ कहलाना हे वसुंधरे,
क्या होता है आसान कभी?
जगत् माता निज उर पर,
तू सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बन,
सहती रही स्व कुपुत्रों के उत्पात कई।
तेरी ही छाती को विदीर्ण होते,
युगों युगों से देखा है।
तेरे विशाल ममतामयी उर को,
वीभत्स रूप से,
पूर्ण रक्त रंजित कर डाला बारम्बार।
करुण रुदन व आर्त नाद,
और क्रंदन की भीषण विभीषिका सही,
अवनि तेरे सुपुत्रों ने बहुत कभी।
तब भी तूने ओ सुमाता,
दर्शाया अप्रतिम धैर्य और,
अतुल्य त्याग को ही।
ममत्व में न किया,
भेदभाव कहीं।।
सर्वस्व किया न्योछावर सब पर,
फिर भी तूने समान सदा।
यहीं तूने पढ़ाया पाठ हमें,
ममत्व के उदारीकरण का।
हे मांँ,
जग जननी ओ धरती माँ,
धन्य धन्य ओ वसुधा माँ।
रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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