त्रासदी
कुछ समझ में नहीं आता ये क्या हो रहा है ?
कहीं युद्ध की विभीषिका, कहीं प्राकृतिक आपदा ,
कहीं महामारी, कहीं आर्थिक तंगी,
कहीं बेकारी बेरोजगारी , कहीं आतंकी मारामारी,
मनुष्य अपना अस्तित्व खोकर असमय काल के कराल गाल में समा रहा है,
क्या यह प्राकृतिक संपदाओं के अंधाधुंध दोहन का परिणाम तो नही है ?
या वैश्विक आधिपत्य एवं कूटनीतिक वर्चस्व स्थापित करने का प्रमाण है ?
या कुछ सिरफिरे धर्मांधताग्रस्त लोगों की सोच के कुत्सित मंतव्यों का उदाहरण है ?
कुछ चंद लोग अपने अहंकार की पूर्ति के लिए संपूर्ण जनजीवन को दांव पर लगा रहे हैं ,
और निरीह जनसमुदाय उनके द्वारा निर्मित त्रासदी को झेल रहे हैं,
परस्पर सद्भावना, सर्वधर्म समभाव, मानवाधिकार,
नीती ,आदर्श, एवं राष्ट्रीयता की भावना कोरी बातें बनकर रह गई है,
जिसकी लाठी है उसी की भैंस यह कहावत यहां पर सही है,
न जाने कब हम इस त्रासदी से उबर पाएंगे ,
और शांति एवं सुख-समृद्धि का सूरज देख पाएंगे।