तेवरीः जन-अनुभूतियों का प्रसव + अरुण लहरी
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सामान्यतः अनुभूतियों का अर्थ-किसी उद्दीपक के प्रभाव का अनुभव है। किसी दृश्य या घटना-दुर्घटना-क्रम को देखकर मन में जैसा भाव उठता है, यह भाव उसके प्रति अनुभूति है। परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है। परिवर्तन किसी भी वस्तु या समाज को कभी एक-सा नहीं रहने देता। परिवर्तन गति का घोतक है। जहाँ गति नहीं वहाँ जड़ता है और जड़ता का दूसरा नाम है-मृत्यु | तेवरी का जन्म इसी जड़ता को तोड़ने के लिए हुआ |
समाज ने अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण साहित्य को भी अपने प्रभाव से अछूता नहीं रखा है। वैदिक काल सदाचार, कठोर संयम, धर्म से बँधा हुआ था, परिणामतः ब्रह्मस्वरूप का निरूपण करने वाली ऋचाओं को स्थान मिला। उसी तरह रीति कालीन साहित्य शृंगार और सौन्दर्य की भावना तथा भक्तिकालीन साहित्य में अपने उपास्य के प्रति दास्य भावनाओं या अनुभूतियों का आधिक्य है। चूंकि समय के साथ-साथ सामाजिक उद्दीपकों के आकार, स्वभाव और उनकी तीव्रता में असह्य परितर्वन आया, परिणामस्वरूप अनुभूतियाँ भी तल्ख होती चली गयीं। और इसी तल्खी ने तेवरी को जन्म दिया जिसमें आक्रोश, असंतोष, विरोध, विद्रोह और व्यंग्य की प्रधानता है |
एक तरफ जहाँ वैज्ञानिक विकास के कारण सारे विश्व में दूरियाँ सिमटती जा रही हैं, वहीं आम जनता राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक कारणों से उत्पीड़न और अत्याचार का शिकार हो रही है। सम्पूर्ण सामाजिक चित्र अजनबीपन, विग्रह, द्वेष, अविश्वास और स्वार्थों में रेखांकित है। जहाँ सम्बन्ध जितनी जल्दी बनते हैं, उतनी ही शीघ्रता से टूट भी जाते हैं। दूसरे शब्दों में आज समाज भौतिक आपाधापी से आक्रान्त, आर्थिक हितों में नुची आस्था, सौहार्द्र, विश्वास, प्रेम की दरिद्रता का नंगा नाच कर रहा है।
जब वर्तमान समाज इस प्रकार की विकृतियों और असंगतियों से ओत-प्रोत है तो उसकी पृष्ठभूमि में लिखा गया साहित्य भिन्न कैसे हो सकता है? और यही कारण है कि तेवरी सामाजिक संत्रास से उत्पन्न अनुभूतियों की एक पीड़ामय प्रसूति है, जिसकी नींव स्वस्थ सामाजिक-चेतना पर आधारित है।