तेरे नाम पर बेटी
आँखे हैं भीग जाती,
तेरे नाम पर बेटी।
तेरी याद बहुत आती ,
सुबह शाम को बेटी।
तेरे खिलौने हैं धरे,
कपड़े भी हैं धरे।
डिब्बे में छुट्टे पैसे,
आज तक भी हैं भरे।
कमरा पड़ा है सूना,
जिसमें तू थी खेलती।
मचिया बनाकर मोटर,
आगे ढकेलती।
बनता हूँ अब भी घोड़ा,
न चढ़ता कोइ बेटी।
तेरी याद बहुत आती ,
सुबह शाम को बेटी।
उठ कर सबेरे मुझको,
जगाता नहीं कोई।
ग्वालन से ताजा दूध
मंगाता नहीं कोई।
स्कूल जाते पैसे
कोई मांगता नहीं।
खूंटी पर मेरा कुर्ता
कोई टांगता नहीं।
अब सिर में मेरे बांम,
न लगाता कोई बेटी।
तेरी याद बहुत आती ,
सुबह शाम को बेटी।
द्वारे का मोती कुत्ता,
चला गया है कहीं।
चिड़िया का घोंसला,
छत पर है अब नहीं।
मेरा आंगन हुआ सूना,
जब से गयी हो तुम।
हैं लोग बहुत सारे,
पर अकेले भये हम।
न पूंछता अब कोई,
मेरेआराम को बेटी।
तेरी याद बहुत आती,
सुबह शाम को बेटी।
छः छः कमीज है,
तीन चार हैं बंडी।
ढेरों हैं गर्म कपड़े,
कितनी भी हो ठंडी।
अब हर महीने पैसे
मैं तो जोड़ता नहीं।
एफ डी जमा है लेकिन,
उसे तोड़ता नहीं।
है दाम बहुत सारा,
पर किस काम का बेटी।
तेरी याद बहुत आती,
सुबह शाम को बेटी।
मेरी लहू हो तुम,
मेरा ही अंश हो।
तुम हो नहीं पराई,
मेरा ही वंश हो।
जब तक तेरी मां मैं हूँ,
पीहर तेरा पूरा।
ससुराल हो भी जाये,
माइका न अधूरा।
रखना सदा तू याद,
अपने मन में ये बेटी।
तेरी याद बहुत आती,
सुबह शाम को बेटी।
कोई न बता सकता,
है पैमान कब बना।
शादी विवाह का ये,
संविधान कब बना।
समाज का रिवाज,
घर घर की रीति है।
हर बेटी का पिता से
कुछ दिन की प्रीत है।
ससुराल में है शोभा,
है विधान ये बेटी।
तेरी याद बहुत आती ,
सुबह शाम को बेटी।
जिसमें है तेरा घर,
वह महफूज़ शहर हो।
खुशियां हो रात दिन,
और आठों पहर हो।
जिस गाँव में तू ब्याही,
कोई भी न हो दुखी।
तेरा कुटुम्ब पूरा,
भली भांति हो सुखी।
अपने पति संग खुश रहो,
आबाद हो बेटी।
तेरी याद बहुत आती,
सुबह शाम को बेटी।
-सतीश ‘सृजन’ लखनऊ.