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11 Nov 2021 · 29 min read

तूणीर (श्रेष्ठ काव्य रचनाएँ)

(1.) ज़बानें हमारी हैं

ज़बानें हमारी हैं, सदियों पुरानी
ये हिंदी, ये उर्दू, ये हिन्दोस्तानी
ज़बानें हमारी हैं….

कभी रंग खुसरो, कभी मीर आए
कभी शे’र देखो, असद गुनगुनाए
चिराग़ाँ जलाओ, ठहाके लगाओ
यहाँ ख़ूबसूरत, सुख़नवर हैं आए
है सदियों से दुनिया, इन्हीं की दिवानी //1.//

यहाँ सूर-तुलसी के, पद गूंजते हैं
जिन्हें गाके श्रद्धा से, हम झूमते हैं
कबीरा-बिहारी के, दोहे निराले
जिन्हें आज भी सारे, कवि पूछते हैं
कि हिंदी पे छाई है, फिर से जवानी //2.//

यहाँ ईद होली, मनाते हैं न्यारी
है गंगा ओ जमना की, तहज़ीब प्यारी
यहाँ हीर गाये, यहाँ झूमे रांझे
यहाँ मरते दम तक, निभाते हैं यारी
महब्बत से लवरेज, हर इक निशानी //3.//

•••

(2.) लम्बी ग़ज़ल

क्योंकर जलाये वो, कुछ ख़त महब्बत के
लिखवाये हसरत ने, जो तेरी चाहत के //मतला//

अब भी ज़हन में हैं, बेशक जले वो ख़त
वो शब्द उल्फ़त के, मजरूह निस्बत के //1.//

अफ़साने क़ातिल के, क्या खूब उभरे हैं
मुझको सुनाने हैं, क़िस्से अदावत के //2.//

बीमार को जानाँ, क्योंकर सताते हो
मशहूर हैं क़िस्से, तेरी नज़ाकत के //3.//

था तेरी नफ़रत में, जज़्बात का जादू
जी भर के देखूँ मैं, ये सुर बग़ावत के //4.//

है पाक उल्फ़त तो, डर इश्क़ से कैसा
कल लोग ढूंढेंगे, क़िस्से सदाक़त के //5.//

नाहक जिया डरकर, मैं तेरी चाहत में
घुटते रहे अरमाँ, यूँ दर्दे-उल्फ़त के //6.//

क्यों धुँद-सी छाई है, क्यों अजनबी हैं हम
क्या आप थे पंछी, इस प्रेम परवत के //7.//

क्यों देखकर उनको, होती नहीं राहत
क्या आ गया कोई, फिर बीच ग़फ़लत के //8.//

क्यों छीन ली मुझसे, सारी ख़ुशी तुमने
मुझको दिए हैं ग़म, क्यों तूने फ़ितरत के //9.//

क्यों पी न पाया मैं, बहते हुए आँसू
क़ाबिल नहीं था क्या, मैं तेरी फुरक़त के //10.//

तुमको नहीं उल्फ़त, तो छोड़िये साहब
पर सुर नहीं अच्छे, ऐ यार नफ़रत के //11.//

मंज़िल नहीं कोई, हैं मोड़ ही आगे
जाएँ कहाँ दिलबर, अब मारे क़िस्मत के //12.//

जब नाखुदा किश्ती, तूफ़ान में डूबे,
कैसे बढ़ें आगे, हम टूटी हिम्मत के //13.//

था इश्क़ में मेरा, ऊँचा कभी रुतबा
माना नहीं क़ाबिल, मैं आज अज़मत के //14.//

जी भर के रोये थे, बरसात हो जैसे
वो कष्टदायी पल, वो ज़ख़्म रुख़्सत के //15.//

नीलाम था शा’इर, वो प्यार मुफ़लिस का
जज़्बात बे’मानी, दिन हाय! ग़ुर्बत के //16.//

थी ज़िन्दगी रोशन, तुम साथ थे मेरे
वो रौशनी खोई, अब बीच ज़ुल्मत के //17.//

•••
____________
(1.) मजरूह — घायल, आहत, ज़ख्मी।
(2.) निस्बत — लगाव; संबंध; ताल्लुक।
(3.) अदावत — शत्रुता, बैर, दुश्मनी।
(4.) जानाँ — प्रेमपात्र, महबूब, प्रेमिका, प्रेयसी।
(5.) सदाक़त — सत्यता, सच्चाई।
(6.) ग़फ़लत — असावधानी, बेपरवाही, अचेतनता, बेसुधी।
(7.) फ़ितरत — स्वभाव, प्रकृति, चालाकी, चालबाज़ी।
(8.) फुरक़त — वियोग, जुदाई।
(9.) नाखुदा — मल्लाह, नाविक।
(10.) अज़मत — बड़ाई, महिमा, गौरव।
(11.) रुख़्सत — बिछड़ना, विदा होना।
(12.) मुफ़लिस — ग़रीब, निर्धन।
(13.) ग़ुर्बत — परेशानी होना, दरिद्रता।
(14.) ज़ुल्मत — अंधकार, तम, तिमिर, अँधेरा, तारीकी।

(3.) याद शहीदों की जब आई

याद शहीदों की जब आई, आया आँखों में पानी
हम एक पल भी न भूले, वीर शहीदों की क़ुर्बानी
याद शहीदों की जब आई…….

सन सत्तावन के रण का, मंगल ने बिगुल बजाया था
जीते जी भूमि न दूंगी, रानी ने वचन निभाया था
मक्कार फिरंगी ने लेकिन, क्रांति को ग़दर बताया था
हिन्द पे मिटने वालों का, यूँ गौरव गान गिराया था
धन्य थे वे वीर जिन्होंने, यूँ देश का मान बढ़ाया था
भारतवासी को आज़ादी, का मतलब समझाया था
कोई याद उन्हें भी कर लो, भर लो आंखों में पानी//1.//

शेर भगत चूमे फंदा तो, शेर करोड़ों आये थे
आज़ाद लगे ना हाथ कभी, शत्रु को धूल चटाये थे
सरफ़रोश शायर बिस्मिल ने, गीत अनूठे गाये थे
आज़ाद हिन्द की ख़ातिर, नेताजी फौज बनाये थे
नारा था वह करो-मरो’ का, गाँधी नभ पर छाये थे
अंग्रेज़ों अब भारत छोड़ो, यह उद्घोष कराये थे
आज़ादी के मतवालों ने, हँस-हँसकर दी क़ुर्बानी//2.//

•••

(4.) ग़ज़ल

ज़िन्दगी अच्छी मुझे लगती नहीं
रौशनी यारब कहीं दिखती नहीं //मतला//

अंत तक है भागना ही ज़िन्दगी
दौड़ से फ़ुरसत कभी मिलती नहीं//1.//

हो खुशामद, कोई अर्ज़ी शाह की
तेरे आगे ऐ खुदा चलती नहीं//2.//

मौत की आगोश में है ये जहां
कौन सी है चीज़ जो मिटती नहीं//3.//

झूठ मीठा बोलिये हरदम मगर
बात कड़वी भी कभी खलती नहीं//4.//

पाप कितना ही करो संसार में
कलयुगी है ये ज़मीं फटती नहीं//5.//

मोक्ष की ही कामना में जो जिए
कोई शय उनको यहाँ छलती नहीं//6.//

क़ीमती ईमान है सबसे बड़ा
चीज़ ये बाज़ार में बिकती नहीं//7.//

इश्क़ को पूजा है मैंने माफ़ कर
ऐ खुदा शायद मिरी ग़लती नहीं//8.//
•••

(5.) वीर बनके बढ़ता चल तू

हौसला रख ऐ बशर तू, हार मत स्वीकार कर
हर कदम पर मुश्किलें हैं, मुश्किलों को पार कर
वीर बनके बढ़ता चल तू, इम्तिहाँ कितने ही हों
मुश्किलों से लड़ता चल तू, इम्तिहाँ कितने ही हों
वीर बनके बढ़ता चल तू ……

हों भले दुश्वारियाँ पर, टूटना जाने नहीं
टूटकर भी अंत तक जो, हार ना माने कहीं
उसके क़दमों पर झुकेगा, आस्मां भी एक दिन
मुस्कुराये अंत तक जो, रार कुछ ठाने नहीं//1.//

रात के सीने में चमका, एक जुगनू तो दिखा
रौशनी हो जाएगी, तू एक दीपक तो जला
आज हँसते हैं जो तुझपर, कल वो तुझको मानेगे
सामने मंज़िल मिलेगी, एक कदम आगे बढ़ा//2.//

हो कोई मैदान लेकिन, तू न पग पीछे हटा
पहले तू नज़रों में अपनी, खुद को ही ऊँचा उठा
आत्मबल है पास तेरे, उसको तू पहचान ले
हर चुनौती देगी तुझको, जीतने का हौसला//3.//
•••

(6.) ग़ज़ल

कुछ सच, कुछ झूठ यहाँ फैलाये रक्खो
जग में अपना अस्तित्व बचाये रक्खो //मतला//

होता आया था जो, हो रहा है अब भी
खेल मदारी में ही उलझाये रक्खो//1.//

सदियों से करते आये शाह यही तो
जो भी हक़ माँगे, उसको सुलाये रक्खो//2.//

सच था, सच है, सच ही रहेगा हरदम ये
सबको मज़हब की अफ़ीम चटाये रक्खो//3.//

कल भी मरता था ये, आगे भी मरेगा
बस मुफ़लिस को जाहिल ही बनाये रक्खो//4.//
•••

(7.) दोहा गीत

मैंने इस संसार में, झूठी देखी प्रीत
मेरी व्यथा-कथा कहे, मेरा दोहा गीत
मैंने इस संसार में ….

मुझको कभी मिला नहीं, जो थी मेरी चाह
सहज न थी मेरे लिए, कभी प्रेम की राह
उर की उर में ही रही, अपना यही गुनाह
कैसे होगा रात-दिन, अब जीवन निर्वाह
जब भी आये याद तुम, उभरे कष्ट अथाह
अब तो जीवन बन गया, दर्द भरा संगीत
मेरी व्यथा-कथा कहे, मेरा दोहा गीत //१. //

आये फिर तुम स्वप्न में, उपजा स्नेह विशेष
निंद्रा से जागा प्रिये, छाया रहा कलेश
मिला निमंत्रण पत्र जो, लगी हिया को ठेस
डोली में तुम बैठकर, चले गए परदेस
उस दिन से पाया नहीं, चिट्ठी का सन्देश
हाय! पराये हो गए, मेरे मन के मीत
मेरी व्यथा-कथा कहे, मेरा दोहा गीत //२ . //

छोड़ गए हो नैन में, अश्कों की बौछार
तिल-तिलकर मरता रहा, जन्म-जन्म का प्यार
विष भी दे जाते मुझे, हो जाता उपकार
विरह अग्नि में उर जले, पाए दर्द अपार
छोड़ गए क्यों कर प्रिये, मुझे बीच मझधार
अधरों पर मेरे धरा, विरहा का यह गीत
मेरी व्यथा-कथा कहे, मेरा दोहा गीत //३. //

•••

(8.) ग़ज़ल

दिल जला तो बुझा दिया मैंने
इश्क़ को ही मिटा दिया मैंने //मतला//

उस परी का जमाल कैसे कहूँ
दिल फ़रेब थी, भुला दिया मैंने//1.//

दिल की बस्ती उजड़ गई यारो
हाय सब कुछ लुटा दिया मैंने//2.//

ग़म मुझे खूब था मगर यारो
मुस्कुरा के बता दिया मैंने//3.//

था उसे इश्क़ मुझसे लेकिन
कब उसे ये पता दिया मैंने//4.//

चाँद हासिल नहीं यहाँ सबको
फिर भी सब कुछ जला दिया मैंने//5.//

ऐ ‘महावीर’ वो न तेरे थे
इश्क़ क्यों फिर जता दिया मैंने//6.//

•••

(9.) दीपावली मनाइए

दीपावली मनाइए
घर-घर दीप जलाइए
तम को दूर भगाइए
दीपावली …………

हाज़िर देसी पान है
जिया हुआ हलकान है
क्या सुन्दर पकवान है
मधुर स्वाद मिष्ठान है
जगमग हर दूकान है
खील-बताशे खाइए //1.//

मुश्किल का रुख़ मोड़िये
सारी दुविधा छोड़िये
मिथ्या भ्रम को तोड़िये
दिल से दिल को जोड़िये
खूब पटाखे फोड़िये
फुलझड़ियाँ सुलगाइए//2.//

जय हो लक्ष्मी-शारदे
ख़ुशियों का उपहार दे
दर्द हमारे तार दे
मस्ती भरी बहार दे
और हमें विस्तार दे
बेड़ा पार लगाइए
दीपावली …………

•••

(10.) ग़ज़ल

ये शहर मुझको जितना देता है
उससे ज़्यादा निचोड़ लेता है //मतला//

मार डालेगी हर अदा उसकी
इश्क़ मुझको ये ख़ौफ़ देता है//1.//

डूब जाऊँ तो ग़म नहीं मुझको
हर भँवर में तू नाव खेता है//2.//

क़त्ल काफ़ी हैं यूँ तो सर उसके
वो बड़े क़द का आज नेता है//3.//

बोल्ड नारी समाज की इज़्ज़त
सच बता तूने क्या ये चेता है//4.//

•••

(11.) बढ़ा रही हैं मस्तियाँ

ग्वाल उछालें टोपियाँ
बढ़ा रही हैं मस्तियाँ
खड़ी राधिका-गोपियाँ
ग्वाल उछालें ………..

हृदय के आसपास रच
एक नया मधुमास रच
वृन्दावन में रास रच
सरगम का अहसास रच
कृष्ण नया इतिहास रच
गूंज उठे सब बस्तियाँ //1.//

औरों का सम्मान कर
फ़िदा चमन पर जान कर
फूलों का रसपान कर
हरि को प्रीतम मान कर
जीवन को रसखान कर
खिल जाएँ फुलवारियाँ//2.//

एक मधुर-सा गीत हो
मनभावन संगीत हो
ऐसी कोई रीत हो
हार न हो बस जीत हो
जहाँ सिर्फ़ मनमीत हो
दूर रहें मक्कारियाँ //3.//

•••

(12.) ग़ज़ल

चन्द रोज़ ही धमाल होता है
हर उरूज़ का ज़वाल होता है //मतला//

ये परिन्दे को क्या ख़बर यारो
हर उड़ान पे सवाल होता है//1.//

छीन लो हक़ अगर नहीं देंगे
इंक़लाब पे बवाल होता है//2.//

झूठ को सब पिरोये सच कहके
हर जगह यह कमाल होता है//3.//

हर सुबह चमकता ये सूरज भी
शाम को क्यों निढाल होता है//4.//

•••
__________
उरूज़—बुलंदी, उन्नति, तरक़्क़ी, ऊँचाई, उत्कर्ष, उत्थान, उठान।
ज़वाल—पतन, गिरावट, अवनति, उतार, घटाव, ह्रास।
इंक़लाब—क्रान्ति, बदलाव, परिवर्तन।
बवाल—बोझ, भार, विपत्ति; या भीड़ द्वारा की गई तोड़-फोड़, मार-पीट आदि।

(13.) गुलनार

फूल खिले हैं प्यार के
गले मिलो गुलनार के
साये में दीवार के
फूल खिले हैं …

जीतो अपने प्यार को
लक्ष्य करो संसार को
अपना सब कुछ हार के//1.//

ऐसे डूबो प्यार में
ज्यों डूबे मझधार में
नैया बिन पतवार के//2.//

ख़ुशी मनाओ झूमकर
धरती-अम्बर चूमकर
सपने देखो यार के//3.//

दिल से दिल को जोड़िये
प्रेम डोर मत तोड़िये
बोल बड़े हैं प्यार के//4.//

दिन हो या फिर रात हो
आँखों-आँखों बात हो
बोल नए हों प्यार के//5.//
•••
––––––––
*गुलनार — अनार की एक किस्म की प्रजाति जिसमें फल नहीं लगते।

(14.) ग़ज़ल

के हर गुनाह को टटोलता है
मुझे ज़मीर यूँ कचोटता है //मतला//

मिरे खुदा मिरे गुनाह बख़्श
तू नेक हो जा, दिल ये बोलता है//1.//

उसे बशर भले न माने चाहे
उसे पता है तू जो सोचता है//2.//

हिसाब दर्ज़ हैं बही में उसकी
तुला में पाप सारे तोलता है//3.//

भले क़बूल मत करो गुनाह
ज़मीर राज़ गहरे खोलता है//4.//

•••

(15.) जनतन्त्र

ये दुनिया खेल-तमाशा है
ये ड्रामा अच्छा-खासा है
गूगल सी कोई भाषा है
ये इसरो भी क्या नासा है
ये दुनिया खेल……

ये गोरख धन्धे वो जाने
जो खुद को भी ना पहचाने
बेकार गढ़े हैं अफ़साने
फिरते सब नाहक दीवाने
क्यों दिल में पाले आशा है
सिर्फ़ चहुँ ओर निराशा है //1.//

संत बड़े है झांसा राम जी
जैसे लगते झण्डू बाम जी
आते भक्तों के बड़े काम जी
खूब कमाया उसने नाम जी
व्यापार ये अच्छा खासा है
खाने को खील-बताशा है //2.//

दाम मिले कुछ भी ना भइया
डॉलर आगे फ़ैल रुपइया
दिन-रात करे ता ता थइया
याद दिला दी सबको मइया
खेल मदारी का झांसा है
सबको जनतन्त्र ने फांसा है //3.//

•••

(16.) ग़ज़ल

लटके हुए सलीब से
कौन लड़े नसीब से //मतला//

पास तो आ ऐ ज़िंदगी
छू लूं ज़रा क़रीब से//1.//

बात न सुन रक़ीब की
दूर न जा हबीब से//2.//

नग्न समाज हो गया
डरने लगा अदीब से//3.//

रोज़ नयी वबा* यहाँ
ख़ौफ़ ज़दा तबीब** से//4.//

जाने मुझे ही क्यों मिले
लोग सदा अजीब से//5.//

•••
___________
*वबा—महामारी, संक्रामक रोग जिससे बहुत से लोग एक साथ – जल्दी मरें; छूतवाला रोग
**तबीब—चिकित्सक. दवा करनेवाला, उपचारक, चिकित्सक, वैद्य

(17.) यादकर भगवान की

अपने भीतर, तू निरंतर, लौ जला ईमान की
तम के बादल भी छंटेंगे, यादकर भगवान की
अपने भीतर तू निरंतर …………………..

है खुदा के ही नूर से है , रौशनी संसार में
वो तेरी कश्ती संभाले, जब घिरे मंझधार में
हुक्म उसका ही चले, औकात क्या तूफ़ान की //1.//

माटी के हम सब खिलोने, खाक जग की छानते
टूटना है कब, कहाँ, क्यों, ये भी हम ना जानते
सब जगह है खेल उसका, शान क्या भगवान की //2.//

दीन-दुखियों की सदा तुम, झोलियाँ भरते रहो
जिंदगानी चार दिन की, नेकियाँ करते रहो
नेकियाँ रह जाएँगी, निर्धन की और धनवान की //3.//

आँख से गिरते ये आँसू, मोतियों से कम नहीं
कर्मयोगी कर्म कर तू, मुश्किलों का ग़म नहीं
दुःख से जो कुंदन बना, क्या बात उस इंसान की //4.//

•••

(18.) ग़ज़ल

हुए हैं दार्शनिक, इस जहां में चंद ऐसे
जिओ यारो, जिया है विवेकानंद जैसे //मतला//

जहां हैरान था देख सन्यासी का जादू
ग़ुलामी में भी आखिर, ये सोच बुलंद कैसे//1.//

गया क्यों भूल तू विष्णु* को, कुछ याद तो कर
घमण्डी नीच, मारा गया था, नन्द** कैसे//2.//

ज़हर सुकरात को दे दिया पर आज भी वो
अमर किरदार है, कोई सोच बुलंद जैसे//3.//

बताया आपने गोरे की थी हुकूमत
तो फिर अध्यात्म में था विदेशी मन्द कैसे//4.//
•••
____________
*विष्णु — आचार्य चाणक्य को ही कौटिल्य, विष्णु गुप्त और वात्सायन कहते हैं।
**नन्द — मगध का क्रूर सम्राट घनानंद, जिसने चाणक्य के पिता आचार्य चणक का सर कटवाकर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया।

(19.) हे बच्चन, तेरी हाला

हे बच्चन, तेरी हाला !
कैसे? हाय! छुयें प्याला !!
धर्म स्थल बन्द हुए हैं,
मगर खुली है मधुशाला !!
हे बच्चन, तेरी हाला….

सकल विश्व में लोग डरे !
महामारी हुंकार भरे !!
सब घर में भयभीत पड़े,
मगर खुली है मधुशाला !!
हे बच्चन, तेरी हाला….

दम किया सबकी नाक में !
रख दी दूरियाँ ताक में !!
अर्थव्यवस्था की ख़ातिर,
मगर खुली है मधुशाला !!
हे बच्चन, तेरी हाला….

•••

(20.) ग़ज़ल

कहे वो वाह, जिसको यार प्यारा है
भरे वो आह, जिसका प्यार खारा है //मतला//

किसी का आज कोई यार रूठा फिर
दुआ में माँगने दो चाँद न्यारा है//1.//

पलक हरगिज नहीं, झपकाइयेगा अब
किसी की आँख का कोई सितारा है//2.//

ज़रा आँखों में अपनी, झाँकने दो फिर
नज़र भर देख लूँ, दिलकश नज़ारा है//3.//

गिला तुमसे नहीं, शिकवा करूँ रब से
मुझे तक़दीर ने, क्या खूब मारा है//4.//

क़सम से जान भी अब मांग लो साहब
मिरा क्या है, यहाँ सब कुछ तुम्हारा है//5.//

मिले हो आप जबसे हर ख़ुशी पाई
महब्बत में मुक़ददर फिर सँवारा है//6.//
•••

(21.) कविता की नदिया

शब्द कहें तू न रुक भइया
कदम बढ़ाकर चल-चल-चल-चल
कविता की नदिया बहती है
करती जाए कल-कल-कल-कल
कविता की नदिया बहती है……….

काग़ज़ पर होती है खेती
हर भाषा के शब्दों की
उच्चारण हों शुद्ध यदि तो
शान बढ़े फिर अर्थों की
हिंदी-उर्दू के वृक्षों से
तोड़ रहे सब फल-फल-फल-फल//1.//

अ आ इ ई के अक्षर हों
या फिर अलिफ़ बे पे ते
ए बी सी डी भी सीखेंगे
सब होनहार हैं बच्चे
उपलब्ध नेट पे आज
समस्याओं के हल-हल-हल-हल//2.//

मीरो-ग़ालिब हों या फिर
हों तुलसी-सूर-कबीरा
प्रेम से उपजे हैं सारे
कहते संत “महावीरा”
बैर भूलकर आपसे में
जी लो सारे पल-पल-पल-पल//3.//

•••

(22.) ग़ज़ल

रूठ जाओ तो ग़ज़ल हो
खिलखिलाओ तो ग़ज़ल हो //मतला//

तुम खड़े हो दूर कबसे
पास आओ तो ग़ज़ल हो //1.//

तेरे ग़म में रो रहा हूँ
मुस्कुराओ तो ग़ज़ल हो //2.//

इश्क़ में है बेक़रारी
चैन पाओ तो ग़ज़ल हो //3.//

कल का एतबार क्या है
आज आओ तो ग़ज़ल हो //4.//

दिल में मेरे आज क्या है
जान जाओ तो ग़ज़ल हो //5.//

मेरे जैसा गीत कोई
गुनगुनाओ तो ग़ज़ल हो //6.//

यार फिर से ज़िन्दगी में
लौट आओ तो ग़ज़ल हो //7.//

छोड़ भी दो कड़वी बातें
भूल जाओ तो ग़ज़ल हो //8.//

काल पर निशान अपने
छोड़ जाओ तो ग़ज़ल हो //9.//

‘मीर’ मेरा रहनुमा है
मान जाओ तो ग़ज़ल हो //10.//

•••
––––––––––––
*मीर—खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर।
*रहनुमा—राह दिखाने वाला, पथप्रदर्शक।

(23.) बेवफ़ाई (छह बन्द)

बन्द एक—
न पाट पाई, तेरी उल्फ़त
वफ़ा की होती, ये गहरी खाई
न कर सकेगी, वफ़ा को ज़िन्दा
ये बरसों-बरसों, की बेवफ़ाई

बन्द दो—
हज़ार घातें, सहते-सहते,
नज़र ने जाना, महब्बत क्या है
था एक धोका, तुम्हारा मिलना
न समझा ये दिल, उल्फ़त बला है

बन्द तीन—
क़रार पायें, तुझ को देखें,
न देखा जब से, उदासी छाई
अगर वफ़ा थी, ज़रा भी हमसे,
न करते हमसे, तुम बेवफ़ाई

बन्द चार—
अनेक ठोकर, हम ने खाई,
मगर ना हमको, पुकारे यारा
क़रीब से हम, ज़रा जो गुज़रे,
किया था तुमने, क्यों फिर किनारा

बन्द पाँच—
न आप गुज़रे, उन राहों से,
जहाँ पे कीं थीं, वफ़ा की बातें !
न नींद आई, ज़रा भी हमको,
कटी हैं करवट, में विरह रातें !!

बन्द छह—
हुई ज़रा सी, कोई आहट
लगा के तुम हो, नहीं था कोई
ख़ता यही है, निभा के उल्फ़त
कभी ना सोई, ताउम्र रोई

•••

(24.) ग़ज़ल

बुना है ख़्वाब स्वेटर-सा, पहन लो इसको तुम दिलबर
जचेगा खूब ये तुम पर, दुआएँ देंगे जी भरकर //मतला//

बयां कैसे करें शर्मों-हया है उनकी आँखों में
ज़ुबां से कह न पाया जो, कहूँगा बात वो लिखकर //1.//

जवानी बीत जाए तो, बुढ़ापा मार डालेगा
चले जायेगें दुनिया से, कहाँ आयेंगे फिर मरकर //2.//

तमन्नाओं की, हसरत की, अलग दुनिया बसाई यों
कभी बिजली जो कड़केगी, सिमट जायेंगे हम डरकर //3.//

ज़माने की हवाओं में, कभी भी हम न बहकेंगे
कहेंगे बात अपनी हम, हमेशा सबसे कुछ हटकर //4.//

•••

(25.) इश्क़–दोस्ती ( तीन बन्द)

बन्द एक—
चार दिन ही, चाँदनी है, इस जहां में,
हर किसी ने, ये कहा है, मानते हैं।
इश्क़ में ही, बीत जाएँ, चार दिन ये,
रौशनी ने, ये कहा है, जानते हैं।।

बन्द दो—
दोस्ती में, कर रहे हो, तुम अदावत,
ये ग़लत है, सब यही तो, मानते हैं।
दोस्ती के, बीच में ये, दुश्मनी क्यों,
यूँ भला क्या, रार कोई, ठानते हैं

बन्द तीन—
वफ़ादारी क़र्ज़ थी, सब कुछ लुटाए थे!
थे क़िस्मत के मारे हम भी, सिर झुकाए थे!!
निभानी थी दुश्मनी, अतः इश्क़ कर बैठे,
महब्बत में क्या जगत, खुद को भुलाए थे!!

•••

(26.) ग़ज़ल

हसीं चेहरे पे आँसू, क़यामत है
खुदा का क़हर है, और आफ़त है //मतला//

नज़र भर देख लेना, ज़रा हँसना
तुम्हें किसने कहा, ये महब्बत है //1.//

सभी को खूब भाये तिरी सूरत
इसी से तूने तोड़ी क़यामत है //2.//

तुझे किसने कहा है कि खुश हूँ मैं
ग़मों में मुस्कुराना, ये फ़ितरत है //3.//

अदा समझे हो दिल तोड़ देने को
यही क्या दिल लगाने की क़ीमत है //4.//

कहाँ समझे महावीर तुम उनको
जहाँ दिल टूटना ही महब्बत है //5.//

•••

(27.) दर्द

इस दुनिया में कोई रोया,
क्यों पीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..
प्यार में टूटा दिल किसी का
क्यों हीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा…..

भाग मेरा हाय रे फूटा
तू जो रूठा, रब रूठा
कोई मुझे न और प्यारा,
साथ तेरा हाय रे छूटा
खोया जिसने भी साथी,
तक़दीर सभी की एक—सी
क्यों दर्द सभी का एक—सा//1.//

मुझको खुदसे यार गिला
साथ मिला ना प्यार मिला
है रब से यही शिकायत,
जीवन क्यों बेकार मिला
चोट लगी अश्क़ बहाये,
क्यों पीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा//2.//

मजनू को लैला न मिली
और फरहाद को शीरी
कहते कहते क्यों डूबे,
वो महिवाल, वो सोहनी
क्यों राँझा जोगी बना है,
क्यों हीर सभी की एक—सी,
क्यों दर्द सभी का एक—सा//3.//

•••

(28.) ग़ज़ल

सदियाँ कई चुकीं गुज़र
थे दहर* में कई शहर //मतला//

उत्थान थे ज़वाल** भी
देखे खुदा कई क़हर //1.//

इतिहास का है सच यही
सुकरात को दिया ज़हर /2.//

फिर इंक़लाबी शोर है
फिर सीने में उठी लहर //3.//

जलता रहा ब्रह्माण्ड में
था ख़ाक में ही तो दहर //4.//
•••
–––––––––––––––
*दहर — काल, समय, दुनिया, जगत, वक्त, युग, क़र्न
**ज़वाल — पतन, अवनति, उतार, ह्रास

(29.) जो कहे इक चाँद

जो कहे इक चाँद बनाया खुदा ने,
ये उनकी नज़र का धोका है
इक चाँद तो अपने मुहल्ले से,
मैंने रोज़ निकलते देखा है
जो कहे इक चाँद ……

लूट लिया है चैन जिया का,
और ज़ख़्म दिए हैं बहुतेरे
यूँ सबको ही अक्सर धोके में,
रखते हैं ये हंसीं चेहरे
यूँ ग़म में डूबे आशिक़ को,
सब ने खूब तड़पते देखा है//1.//

घात लगाए शिकार करे वो,
यूँ फँसे हैं कई दीवाने
जैसे चराग़ जले महफ़िल में
जल जाते खुद ही परवाने
अब कोई बचेगा न यारो,
ये जाल हसीनों ने फेंका है//2.//
•••

(30.) ग़ज़ल

ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो //मतला//

है मुश्किल दौर, सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हमसे
मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो //1.//

नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो ख़ुशहाली
कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें सपने दिखाते हो //2.//

अँधेरा करके बैठे हो, हमारी ज़िन्दगानी में
मगर अपनी हथेली पर, नया सूरज उगाते हो //3.//

व्यवस्था कष्टकारी क्यों न हो, किरदार ऐसा है
ये जनता जानती है सब, कहाँ तुम सर झुकाते हो //4.//

•••

(31.) क्षणिकाएँ

(1.) तार
———–
आत्मा
एक तार है
जोड़ रखा है जिसने
जीवन को
मृत्यु से
और मृत्यु को
जोड़ा है …
पुन: नवसृजन से ….

(2.) क्रांति
————-
परत-दर-परत
खुल रही हैं वे बातें
जो लाख पर्दों में
छिपीं रहती थीं …
ये वास्तव में
परिवर्तन है
या दूर संचार क्रांति
से उपजी …
कोई अन्य दुनिया
जहाँ बिना आईने के
सब कुछ
देखा जा सकता है!!

(3.) संवेदनाएँ
—————–
जीवन का अस्थित्व
अभी बाकी है
शायद इसलिए
बम धमाकों
और जिहादी नारों
के बीच भी बची हुई हैं
कुछ मानवीय संवेदनाएँ !

(4.) प्रवाह
————
वे शब्द ही अपना
सार्थक प्रभाव
छोड़ पाने में
सक्षम हैं शायद …
जो स्फुटित होते हैं
स्वयमेव
शब्द प्रवाह से …
वर्ना रचनाएँ
शब्दों की कब्रगाह
ही तो हैं ……।

(5.) अहम्
————
जीवित है अहम् जब तक
शायद मानव
जीवित है तभी तक …
वरना —
जलने से पूर्व
लाश भी
एक शरीर ही तो है।

(6.) भाग्य
————
खुद ही बदलता है
समर्थ व्यक्ति
अपना भाग्य
शायद इसलिए
ज्योतिष को नहीं
मानते कुछ लोग
क्योंकि —
वास्तविक रेखाएँ
कर्म से ही बदलती हैं।

(7.) रेखांकन
—————
स्वयं को
रेखांकित करने के
प्रयास में … बिखर गया
रचनाकार स्वयं …
अपने ही भीतर
अंतहीन विस्तार में …

(8.) सम्प्रेषण
—————–
सम्प्रेषण यदि नहीं है
तो हमारा स्वर स्वयं
हमारी आत्मा को भी
नहीं झकझोर सकता …
परमात्मा को
पाना तो बहुत
दूर की बात है ….

(9.) तूलिका
—————
तूलिका से जब
अनुशासित रूप में
रंग काग़ज़ पर
उकेरे जाते हैं
तो चित्र स्वयं
बोलता है …
चित्रकार तब भी
मौन चुनता है।

(10.) नियति
————–
आँखों से जो दृष्टिगोचर है
यदि वह सत्य है
तो फिर
भ्रम की मनोस्थिति क्या है
क्यों मानव की नियति
कुछ और …
कुछ और जानने में है।

(11.) संस्कार
—————-
पाश्चात्य पाशुविकता,
दरिंदगी और भोंडेपन को
अपना कर हम न तो
आत्याधुनिक ही बन सके
और न ही हमारे भीतर
परम्परागत संस्कार ही
जीवित रह पाए …
जो हमारे भीतर / निरंतर
मानवता के कई
अध्याय रचते थे !!

(12.) आलोक
—————-
जीवन के प्रस्थान बिन्दू से
हम अपने चरमबिन्दू पर
पंहुच हैं …
चहूँ ओर अब तक
कमाए गए
समस्त अनुभवों का
आलोक फैला है
और प्रकाश से
चकाचौंध आँखें
कुछ भी देख पाने में
असमर्थ हैं !

(13.) विकट
————–
आस और निरास के
बीच की स्थिति
बड़ी ही विकट है …
व्यक्ति न तो
उधर ही जा पाता है
जहाँ उसे जाना है
और इधर का भी
नहीं रहता जहाँ वह
अपने शरीर का समस्त भार
पृथ्वी पर डाले खड़ा है …

(14.) दुराग्रह
—————
अपने अस्थित्व को
बचाए रखने के लिए
आवश्यक है कि
हम अपने
समस्त दुराग्रहों को
त्याग दें वरना
एक समर्थ रचनाकार
बनने की दौड़ में
हम सबसे पीछे
छूट जायेंगे …

(15.) वक़्त
————-
वक़्त तेज़ी से
बदल रहा है
लेकिन
बदलते वक़्त में भी
यह समझना
आवश्यक है कि
अपनी जड़ों को
छोड़ देने से
वृक्ष का अस्थित्व
ख़त्म हो जाता है …

(16.) चाह
————
हर तरफ़
अन्धकार व्याप्त है जहाँ,
हमें स्वयं को उसके
अनुरूप ढालना होगा
अन्यथा प्रकाश की चाह हमें
पल-पल, तिल-तिल
गला डालेगी।
•••

(32.) ग़ज़ल

बड़ी तकलीफ़ देते हैं ये रिश्ते
यही उपहार देते रोज़ अपने //मतला//

ज़मीं से आसमाँ तक फैल जाएँ
धनक* में ख़्वाहिशों के रंग बिखरे //1.//

नहीं टूटे कभी जो मुश्किलों से
बहुत खुद्दार** हमने लोग देखे //2.//

ये कड़वा सच है यारों मुफ़लिसी का
यहाँ हर आँख में हैं टूटे सपने //3.//

कहाँ ले जायेगा मुझको ज़माना
बड़ी उलझन है, कोई हल तो निकले //4.//
•••
________
*धनक — इन्द्रधनुष (rainbow)
**खुद्दार— स्वाभिमानी

(33.) टूटा हुआ दर्पण

एक टीस-सी
उभर आती है
जब अतीत की पगडंडियों
से गुजरते हुए
यादों की राख़ कुरेदता हूँ ।

तब अहसास होने लगता है
कितना स्वार्थी था मेरा अहम?
जो साहित्यक लोक में खोया
न महसूस कर सका
तेरे हृदय की गहराई
तेरा वह मुझसे आंतरिक लगाव
मैं तो मात्र तुम्हें
रचनाओं की प्रेयसी समझता रहा
परन्तु तुम किसी प्रकाशक की भांति
मुझ रचनाकार को पूर्णत: पाना चाहती थी

आह! कितना दु:खांत था
वह विदा पूर्व तुम्हारा रुदन
कैसे कह दी थी
तुमने अनकही सच्चाई
किन्तु व्यर्थ
सामाजिक रीतियों में लिपटी
तुम हो गई थी पराई

आज भी तेरी वही यादें
मेरे हृदय का प्रतिबिम्ब हैं
जिनके भीतर मैं निरंतर
टूटी हुई रचनाओं के दर्पण जोड़ता हूँ ।

•••

(34.) ग़ज़ल

तीरो-तलवार से नहीं होता
काम हथियार से नहीं होता //मतला//

घाव भरता है धीरे-धीरे ही
कुछ भी रफ़्तार से नहीं होता //1.//

खेल में भावना है ज़िंदा तो
फ़र्क़ कुछ हार से नहीं होता //2.//

सिर्फ़ नुक़सान होता है यारो
लाभ तकरार से नहीं होता //3.//

उसपे कल रोटियाँ लपेटें सब
कुछ भी अख़बार से नहीं होता //4.//

•••

(35.) महानगर में

कौन से उज्जवल
भविष्य की खातिर
हम पड़े हैं—
महानगर के इस
बदबूदार घुटनयुक्त
वातावरण में ।

जहाँ साँस लेने पर
टी०बी० होने का खतरा है
जहाँ अस्थमा भी
बुजुर्गों से विरासत में मिलता है

और मिलती है
क़र्ज़ के भारी पर्वत तले
दबी सहमी-सहमी-सी
खोखली ज़िन्दगी ।

और देखे जा सकते हैं
भरी जवानी में पिचके गाल/ धंसी आँखें
सिगरेट सी पतली टांगें
खिजाब से काले किये सफेद बाल

हरियाली-प्रकृति के नाम पर
दूर-दूर तक फैला
कंकरीट के मकानों का विस्तृत जंगल
कोलतार की सड़कें
बदनाम कोठों में हंसता एच०आई०वी०
और अधिक सोच-विचार करने पर
कैंसर जैसा महारोग… गिफ्ट में ।
•••

(36.) ग़ज़ल

सोच का इक दायरा है, उससे मैं कैसे उठूँ
सालती तो हैं बहुत यादें, मगर मैं क्या करूँ //मतला//

ज़िंदगी है तेज़ रौ, बह जायेगा सब कुछ यहाँ
कब तलक मैं आँधियों से, जूझता-लड़ता रहूँ //1.//

हादिसे इतने हुए हैं, दोस्ती के नाम पर
इक तमाचा-सा लगे है, यार जब कहने लगूँ //2.//

जा रहे हो छोड़कर, इतना बता दो तुम मुझे
मैं तुम्हारी याद में, तड़पूँ या फिर रोता फिरूँ //3.//

सच हों मेरे स्वप्न सारे, जी तो चाहे काश मैं
पंछियों से पंख लेकर, आसमाँ छूने लगूँ //4.//

•••

(37.) जीवन आधार

फूल नर्म, नाजुक और सुगन्धित होते हैं
उनमें काँटों-सी बेरुखी कुरूपता और अकड़न नहीं होती

जिस तरह छायादार और फलदार वृक्ष
झुक जाते हैं औरों के लिए
उनमें सूखे चीड़-चिनारों जैसी गगन छूती
महत्वकांक्षा नहीं होती ।

क्योंकि ..
अकड़न बेरुखी और महत्वकांक्षा में
जीवन का सार हो ही नहीं सकता
जीवन तो निहित है झुकने में
स्वयं विष पीकर
औरों के लिए सर्वस्व लुटाने में

नारी जीवन ही सही मायनों में जीवनाधार है
माँ बहन बेटी पत्नी प्रेयसी आदि समस्त रूपों में
सर्वत्र वह झुकती आई है
तभी तो पुरुष ने अपनी मंजिल पाई है
उसने पाया है
बचपन से ही आँचल, दूध और गोद
ममता प्यार स्नेह, विश्वास वात्सल्य आदि

किन्तु सोचो..
यदि नारी भी पुरुष की तरह स्वार्थी हो जाये
या समझौतावादी वृति से निजात पा जाये
तो क्या रह पायेगा आज
जिसे कहते हैं पुरुष प्रधान समाज ।

•••

(38.) ग़ज़ल

लहज़े में क्यों बेरूख़ी है
आपको भी कुछ कमी है //मतला//

पढ़ लिया उनका भी चेहरा
बंद आँखों में नमी है //1.//

सच ज़रा छूके जो गुज़रा
दिल में अब तक सनसनी है //2.//

भूल बैठा हादिसों में
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है //3.//

दर्द काग़ज़ में जो उतरा
तब ये जाना शाइरी है //4.//

•••

(39.) दस्तक

काल के कपाल पर
अगर मेरी रचनाएँ दस्तक नहीं दे सकती
बुझे हुए चेहरों पर रौनक नहीं ला सकती
मजदूरों के पसीने का मूल्यांकन नहीं कर सकती
शोषण करने वालों का रक्त नहीं पी सकती
तो व्यर्थ है मेरा कवि होना
इन रचनाओं का काग़ज पर आकार लेना
और व्यर्थ है आलोचकों का
इन्हें महान रचनाएँ कहकर संबोधित करना

•••

(40.) ग़ज़ल

हार किसी को भी, स्वीकार नहीं होती
जीत मगर प्यारे, हर बार नहीं होती //मतला//

एक बिना दूजे का, अर्थ नहीं रहता
जीत कहाँ पाते, यदि हार नहीं होती //1.//

बैठा रहता मैं भी, एक किनारे पर
राह अगर मेरी, दुशवार नहीं होती //2.//

डर मत लह्रों से, आ पतवार उठा ले
बैठ किनारे, नैया पार नहीं होती //3.//

खाकर रूखी-सूखी, चैन से सोते सब
इच्छाएँ यदि लाख, उधार नहीं होती //4.//

•••

(41.) मवाद

धर्म जब तक
मंदिर की घंटियों में
मस्जिद की अजानों में
गुरूद्वारे के शब्द-कीर्तनों में
गूंजता रहे तो अच्छा है

मगर जब वो
उन्माद-जुनून बनकर
सड़कों पर उतर आता है
इंसानों का रक्त पीने लगता है
तो यह एक गंभीर समस्या है?

एक कोढ़ की भांति हर व्यवस्था और समाज को
निगल लिया है धार्मिक कट्टरता के अजगर ने ।
अब कुछ-कुछ दुर्गन्ध-सी उठने लगी है
दंगों की शिकार क्षत-विक्षत लाशों की तरह
सभी धर्म ग्रंथों के पन्नों से!
क्या यही सब वर्णित है
सदियों पुराने इन रीतिरिवाजों में?
रुढियों-किद्वान्तियों की पंखहीन परवाजों में?

ऋषि-मुनियों पैगम्बरों साधु-संतों द्वारा
उपलब्ध कराए इन धार्मिक खिलौनों को
टूटने से बचने की फिराक में
ताउम्र पंडित-मौलवियों की डुगडुगी पे
नाचते रहेंगे हम बन्दर- भालुओं से…!

क्या कोई ऐसा नहीं जो एक थप्पड़ मारकर
बंद करा दे इन रात-दिन
लाउडस्पीकर पर चीखते धर्म के
ठेकेदारों के शोर को?
जिन्हें सुनकर पक चुके हैं कान
और मवाद आने लगा है इक्कीसवीं सदी में!

•••

(42.) ग़ज़ल

धूप का लश्कर* बढ़ा जाता है
छाँव का मंज़र लुटा जाता है //मतला//

रौशनी में इस कदर पैनापन
आँख में सुइयाँ चुभा जाता है //1.//

चहचहाते पंछियों के कलरव** में
प्यार का मौसम खिला जाता है //2.//

फूल-पत्तों पर लिखा कुदरत ने
वो करिश्मा कब पढ़ा जाता है //3.//

फिर नई इक सुब्ह का वादा
ढ़लते सूरज में दिखा जाता है //4.//
•••

________
*लश्कर — बृहद समूह-दल
**कलरव — मधुर ध्वनि में

(43.) पतन

मानव को अनेक चिन्तायें
चिन्ताओं के अनेक कारण
कारणों के नाना प्रकार
प्रकारों के विविध स्वरुप
स्वरूपों की असंख्य परिभाषायें
परिभाषाओं के महाशब्दजाल
शब्दजालों के घुमावदार अर्थ
प्रतिदिन अर्थों के होते अनर्थ
खण्ड-खण्ड खंडित विश्वास
मानो समग्र नैतिकता बनी परिहास
बुद्धिजीवी चिन्तित हैं
जीविकोपार्जन को लेकर!
क्या करेंगे जीवन मूल्यों को ढोकर?
व्यर्थ है घर में रखकर कलेश
क्या करेंगे मूल्यों के धर अवशेष?

•••

(44.) ग़ज़ल

क्या अमीरी, क्या ग़रीबी
भेद खोले है फ़क़ीरी //मतला//

ग़म से तेरा भर गया दिल
ग़म से मेरी आँख गीली //1.//

तीरगी* में जी रहा था
तूने आ के रौशनी की //2.//

ख़ूब भाएँ मेरे दिल को
मस्तियाँ फ़रहाद** की सी //3.//

मौत आये तो सुकूँ हो
क्या रिहाई, क्या असीरी //4.//
•••
________
*तीरगी — अँधेरे
**फ़रहाद — ‘शीरीं-फ़रहाद’ नामक प्रेमकहानी का नायक
***असीरी — क़ैद

(45.) पाँव

पाँव थककर भी
चलना नहीं छोड़ते
जब तक वे
गंतव्य तक न पहुँच जाएँ …
थक जाने पर कुछ देर
राह में विश्राम कर
पुन: चल पड़ते हैं
अपने लक्ष्य की ओर…
जबकि
घोड़े के रथ पर सवार लोग
या फिर ईंधन से चलायमान
अत्याधुनिकतम गाड़ियों में बैठे लोग
बिना पहियों के
अगले पडाव तक नहीं पहुंच पाते…
मगर
पाँव सदियों से
यात्रा करते आये हैं
कई सम्यताओं
और संस्कृतियों की दास्ताँ कहते!!!
•••

(46.) ग़ज़ल

शे’र इतने ही ध्यान से निकले
तीर जैसे कमान से निकले //मतला//

भूल जाये शिकार भी ख़ुद को
यूँ शिकारी मचान से निकले //1.//

था बुलन्दी का वो नशा तौबा
जब गिरे आस्मान से निकले //2.//

हूँ मैं कतरा, मिरा वजूद कहाँ
क्यों समन्दर गुमान से निकले //3.//

देखकर फ़ख्र हो ज़माने को
यूँ ‘महावीर’ शान से निकले //4.//

•••

(47.) एक मई का दिन

कुछ भी तो ठीक नहीं
इस दौर में!
वक्त सहमा हुआ
एक जगह ठहर गया है!!
जैसे घडी की सुइयों को
किसी अनजान भय ने
अपने बाहुपाश में
बुरी तरह जकड रखा हो।
व्यवस्था ने कभी भी
व्यापक फलक नहीं दिया श्रमिकों को
जान निकल देने वाली
मेहनत के बावजूद
एक चौथाई टुकड़े से ही
संतोष करना पड़ा
एक रोटी भूख को
सालों-साल।…
पीढ़ी-दर-पीढ़ी!!

एक प्रश्र कौंधता है—
क्या कीमतों को बनाये रखना
और मुश्किलों को बढ़ाये रखना
इसी का नाम व्यवस्था है?
“रूसी क्रांति” और “माओ का शासन”
अब पढ़ाये जाने वाले
इतिहास का हिस्सा भर हैं।
साल बीतने से पूर्व ही
वह ऐतिहासिक लाल पन्ने
काग़ज़ की नाव या हवाई जहाज
बनाकर कक्षाओं में उड़ने के काम आते हैं
हमारे नौनिहालों के—
जिन्हें पढाई बोझ लगती है!
एक मजदूर से जब मैंने पूछा—
क्या तुम्हें अपनी जवानी का
कोई किस्सा याद है?
वह चौंक गया!
मानो कोई पहेली पूछ ली हो?

बाबू ये जवानी क्या होती है!
मैंने तो बचपन के बाद
इस फैक्ट्री में सीधा अपना बुढ़ापा ही देखा है!!
मैं ही क्या
दुनिया का कोई भी मजदूर
नहीं बता पायेगा
अपनी जवानी का कोई यादगार किस्सा!!
अब मन में यह प्रश्र कौंधता है—
क्या मजदूर का जन्म
शोषण और तनाव झेलने
मशीन की तरह निरंतर काम करने
कभी न खत्म होने वाली जिम्मेदारियों को उठाने
और सिर्फ दु:ख-तकलीफ के लिए ही हुआ है?
क्या यह सारे शब्द मजदूर के पर्यायवाची हैं?
मुझे भी यह अहसास होने लगा है
कोई बदलाव नहीं आएगा
कोई इंकलाब नहीं आएगा

पूंजीवादी कभी हम मेहनत कशों का
वक्त नहीं बदलने देंगे!
हमें चैन की करवट नहीं लेने देंगे।
हमारे हिस्से के चाँद-सूरज को
एक साजिश के तहत
निगल लिया गया है!
अफ़सोस—पूरे साल में
एक मई का दिन आता है
जिस दिन हम मेहनतकश
चैन की नींद सोये रहते हैं!

•••

(48.) ग़ज़ल

मकड़ी-सा जाला, बुनता है
ये इश्क़ तुम्हारा कैसा है //मतला//

ऐसे तो न थे हालात कभी
क्यों ग़म से कलेजा फटता है //1.//

मैं शुक्रगुज़ार तुम्हारा हूँ
ये दर्द तुम्हें भी दिखता है //2.//

चारों तरफ़ तसव्वुर में भी
इक सन्नाटा-सा पसरा है //3.//

करता हूँ खुद से ही बातें
क्या मुझसा तन्हा देखा है //4.//

•••

(49.) ठण्डी दोहा एकादशी

ठण्डी में पारा गिरा, पहुँचा एक इकाय
बैठ रजाई सोचते, कौनो नहीं उपाय // 1. //

ठण्डी का है तोड़ यह, जप ॐ नमो शिवाय
अग्नि देव की शरण ले, उत्तम यही उपाय // 2. //

भोग रही है ठण्ड में, निर्धनता अभिशाप
जड़े तमाचा सेठ जी, बोले रस्ता नाप // 3. //

ए.सी. हीटर छोड़कर, नेता बाहर देख
खींच रहे हैं ठण्ड में, निर्धनता की रेख // 4. //

कितने मारे ठण्ड ने, मेरे शम्भूनाथ
उत्तर सभ्य समाज से, मांग रहा फुटपाथ // 5. //

शीत लहर चलने लगी, मरे ठिठुरते लोग
धनवान मौज से करे, सारे छप्पन भोग // 6. //

घीसू माधव सड़क पर, आग रहे हैं ताप
प्रेमचन्द के पात्र हम, भोग रहे सन्ताप // 7. //

प्रेमचन्द के पात्र बन, उतरे सभी किसान
सर्द सड़क सिकुड़ा पड़ा, होरी का गोदान // 8. //

गर्मी में लू से मरे, मरे शीत से लोग
बारिश मारे बाढ़ में, विचित्र विधि संजोग // 9. //

आया मौसम ठण्ड का, सुन्दर लागे धूप
गरमी का जब वेग था, लागे धूप कुरूप // 10. //

स्नान करे जो ठण्ड में, वो जन बड़े महान
ठण्डा पानी काल सम, हर ले तुरन्त प्रान // 11. //

•••

(50.) ग़ज़ल

तेरी तस्वीर को याद करते हुए
एक अरसा हुआ तुझको देखे हुए //मतला//

एक दिन ख़्वाब में ज़िन्दगी मिल गई
मौत की शक्ल में खुद को जीते हुए //1.//

आह भरते रहे उम्रभर इश्क़ में
ज़िन्दगी जी गये तुझपे मरते हुए //2.//

कितनी उम्मीद तुमसे जुड़ी ख़ुद-ब-खुद
कितने अरमान हैं दिल में सिमटे हुए //3.//

फिर मुकम्मल बनी तेरी तस्वीर यों
खेल ही खेल में रंग भरते हुए //4.//

•••

(51.) राष्ट्रकवि दिनकर दोहा एकादशी

हो दिनकर जी राष्ट्रकवि, स्वीकार हो प्रणाम
राष्ट्र काव्य को आपने, दिया नया आयाम // 1. //

चिन्तन शाब्दिक अर्थ से, मथकर निकले राम
इस पुण्य फल निसर्ग में, साहित्य चार धाम // 2. //

जन्म अश्विन त्रियोदशी, स. उन्नीस सौ आठ
है ‘दिनकर’ विख्यात कवि, गाँव सिमरिया घाट // 3. //

नेहरू के ख़िलाफ़ भी, बुलन्द की आवाज़
देखन में है देवता, ग़लत मगर परवाज़ // 4. //

हार गए हो चीन से, सन बासठ का युद्ध
त्याग सिंहासन नेहरू, बन सन्यासी बुद्ध // 5. //

हिन्दी ने पैदा किया, अजर-अमर अविराम
कवि ‘भूषण’ के बाद वो, धारी ‘दिनकर’ नाम // 6. //

‘प्रतीक्षा परशुराम’ से, हुए ‘राष्ट्रकवि’ श्रेष्ठ
‘रश्मिरथी’ वा ‘उर्वशी’, काव्य हैं सर्वश्रेष्ठ // 7. //

‘कुरुक्षेत्र’ शान्ति-पर्व का, अद्भुत कवितारूप
दिनकर जी कविराय ने, सुन्दर रचा स्वरूप // 8. //

सर्वेक्षण है भारती, संस्कृति के अध्याय
इस पुस्तक के मूल में, दिनकर का पर्याय // 9. //

राष्ट्रीय प्रगतिवाद के, ‘दिनकर’ जी कविराय
काल आधुनिक आपका, गद्य-पद्य अभिप्राय // 10. //

कवि ‘दिनकर’ निर्वाण वह, तमिलनाडु मद्रास
शोकाकुल हिन्दी जगत, शेष रही स्मृति पास // 11. //

•••

(52.) ग़ज़ल

ख़्वाब झूठे हैं
दर्द देते हैं //मतला//

रंग रिश्तों के
रोज़ उड़ते हैं //1.//

कैसे-कैसे सच
लोग सहते हैं //2.//

प्यार सच्चा था
ज़ख़्म गहरे हैं //3.//

हाथ में सिग्रेट
तन्हा बैठे हैं //4.//

•••

(53.) शिक्षा के दोहे

दीवाने-ग़ालिब पढो, महावीर यूँ आप
उर्दू-अरबी-फारसी, हिन्दी करे मिलाप // १ .//

शिक्षा-दीक्षा ताक पर, रखता रोज़ गरीब
बचपन बेगारी करे, फूटे हाय नसीब // २. //

पीढ़ी-दर -पीढ़ी गई, हरेक सच्ची बात
अक्षर-अक्षर ज्ञान है, खुशियों की सौगात // ३. //

शिक्षा एक समान हो, एक बनेगा देश
फैला दो सर्वत्र ही, पावन यह सन्देश // ४ . //

जिसमे जितना ज्ञान है, उतना उसका तेज
महावीर फिर ज्ञान से, करता क्यों परहेज // ५ . //

विद्या में हर शक्ति है, हर मुश्किल का तोड़
पुस्तक से मत फेर मुख, शब्द बड़े बेजोड़ // ६. //

अक्षर से कर मित्रता, सच्ची मित्र किताब
तेरे सभी सवाल का, इसके पास जवाब // ७. //

सारी भाषा-बोलियाँ, विद्या का है रूप
विश्व में चहुँ ओर ही, खिली ज्ञान की धूप // ८. //

जीवन ही अर्पित किया, सरस्वती के नाम
उस साधक को यह जगत, झुककर करे प्रणाम // ९. //

पढ़ा-लिखा इन्सान ही, लिखता है तकदीर
अनपढ़ सदा दुखी रहा, कहे कवि महावीर // १०. //

•••

(54.) ग़ज़ल

नज़र में रौशनी है
वफ़ा की ताज़गी है //मतला//

जियूँ चाहे मैं जैसे
ये मेरी ज़िंदगी है //1.//

ग़ज़ल की प्यास हरदम
लहू क्यों मांगती है //2.//

मिरी आवारगी में
फ़क़त तेरी कमी है //3.//

इसे दिल में बसा लो
ये मेरी शा’इरी है //4.//

•••

(55.) महंगाई के दोहे

महंगाई डायन डसे, निर्धन को दिन-रात
धनवानों की प्रियतमा, पल-पल करती घात //१//

महंगाई के राग से, बिगड़ गए सुरताल
सिर पर चढ़कर नाचती, गले न बिलकुल दाल //२//

महंगी रोटी-दाल है, मुखिया तुझे सलाम
पूछे कौन ग़रीब को, इज्ज़त भी नीलाम //३//

आटा गीला हो गया, क्या खाओगे लाल
बहुत तेज इस दौर में, महंगाई की चाल //४//

आटा-चावल-दाल क्या, सत्तू तक है दूर
महंगाई के खेल में, हिम्मत चकनाचूर //५//

बच्चे बिलखें भूख से, पिता रहा है काँप
डसने को आतुर खड़ा, महंगाई का साँप //६//

महंगाई प्रतिपल बढे, कैसे हों हम तृप्त
कलयुग का अहसास है, भूख-प्यास में लिप्त //७//

महंगाई के प्रेत ने, किया लाल को मौन
मात-पिता हैरान हैं, उनको पूछे कौन //८//

गपशप में होने लगी, महंगाई की बात
वेतन ज्यों का त्यों रहा, दाम बढे दिन-रात //९//

महंगाई के दौर में, कटुता का अहसास
बदल दिया है भूख ने, वर्तमान इतिहास //१०//

सदियों से निर्धन यहाँ, होते रहे हलाल
धनवानों के हाथ में, इज़्ज़त रोटी-दाल //११//

वेतन थकती सीढियाँ, मजदूरी बेहाल
तेज़ लिफ़्ट से है बड़ी, महँगाई की चाल //१२//

•••

(56.) ग़ज़ल

रात पूनम की, बड़ी अच्छी लगे
फूल अरबी, आयतों जैसे खिले //मतला//

नक़्श दिल पे, हो रही है, शा’इरी
रोज़ मौसम, इक ग़ज़ल, मुझसे कहे //1.//

आपकी, दरिया दिली, बढ़ने लगी
आप मुझपे, मेहरबाँ होने लगे //2.//

तितलियों ने, देर तक, हैराँ किया
आपको देखा, नहीं उड़ते हुए //3.//

हुस्न की, महफ़िल, सजी थी दरमियाँ
देर तक हम, आपको सजदा किये //4.//

•••

(57.) पर्यावरण के दोहे

छह ऋतु, बारह मास हैं, ग्रीष्म-शरद-बरसात
स्वच्छ रहे पर्यावरण, सुबह-शाम, दिन-रात // १ //

कूके कोकिल बाग में, नाचे सम्मुख मोर
मनोहरी पर्यावरण, आज बना चितचोर // २ //

खूब संपदा कुदरती, आँखों से तू तोल
कह रही श्रृष्टि चीखकर, वसुंधरा अनमोल // ३ //

मन प्रसन्नचित हो गया, देख हरा उद्यान
फूल खिले हैं चार सू, बढ़ा रहे हैं शान //४ //

मानव मत खिलवाड़ कर, कुदरत है अनमोल
चुका न पायेगा कभी, कुदरत का तू मोल // ५ //

आने वाली नस्ल भी, सुने प्रीत के गीत
कुदरत के कण-कण रचा, हरयाली संगीत // ६ //

फल-फूल कंदमूल हैं, पृथ्वी को वरदान
इन सबको पाकर बना, मानव और महान // ७ //

कर दे मानव ज़िन्दगी, कुदरत के ही नाम
वृक्ष -लताओं पर लिखा, प्यार भरा पैग़ाम // ८ //

हरयाली के गीत मैं, गाता आठों याम
कोटि-कोटि पर्यावरण, तुमको करूँ प्रणाम // ९ //

•••

(58.) ग़ज़ल

मिरी नज़र में ख़ास तू, कभी तो बैठ पास तू
तिरे ग़मों को बाँट लूँ, है क्यों बता उदास तू //मतला//

लगे है आज भी मुझे, भुला नहीं सकूँ तुझे
कभी जो मिट न पायेगी, वही है मेरी आस तू //1.//

छिपी तुझी में तश्नगी, नुमाँ तुझी में हसरतें
लुटा दे आज मस्तियाँ, बुझा दे मेरी प्यास तू //2.//

वजूद अब तिरा नहीं, ये जानता हूँ यार मैं
मिरा रगों में आ बसा है, अब तो और पास तू //3.//

छिपाए राजे-ज़ख़्म तू ऐ यार टूट जायेगा
ग़मों से चूर-चूर यूँ, है कबसे बदहवास तू //4.//

•••

(59.) प्रदूषण के दोहे

शुद्ध नहीं आबो-हवा, दूषित है आकाश
सभ्य आदमी कर रहा, स्वयं श्रृष्टि का नाश //१//

ओजोन परत गल रही, प्रगति बनी अभिशाप
वक़्त अभी है चेतिए, पछ्ताएंगे आप //२//

अंत निकट संसार का, सूख रही है झील
दूषित है वातावरण, लुप्त हो रही चील //३//

हथियारों की होड़ से, विश्व हुआ भयभीत
रोज़ परीक्षण गा रहे, बरबादी के गीत //४ //

नदिया क्यों नाला बनी, इस पर करो विचार
ज़हर न अब जल में घुले, ऐसा हो उपचार //५//

आतिशबाजी छोड़कर, ताली मत दे यार
शोर पटाखों का बहुत, होता है बेकार //६ //

गलोबल वार्मिंग कर रही, सभी को सावधान
प्रदूषण पर लगाम कस, मत बन तू नादान //७//

कुदरत से खिलवाड़ पर, बने सख्त कानून
पहले दो चेतावनी, फिर काटो नाख़ून //८//

ऊँचे सुर में लग रहे, जयकारे दिन-रात
शोर प्रदूषण हो रहा, भक्तो की सौगात //९//

नियमित गाड़ी जांच हो, तो प्रदूषण न होय
अर्थदण्ड से भी बचे, सदा चैन से सोय //१०//

दूषित जल से हो रही, मछली भी बेचैन
हैरानी इस बात से, मानव मूंदे नैन //११//

सूखा-बाढ़-अकाल है, कुदरत का आक्रोश
किया प्रदूषण अत्यधिक, मानव का है दोष //१२//

•••

(60.) ग़ज़ल

मिरी नज़र में ख़ास तू, कभी तो बैठ पास तू
तिरे ग़मों को बाँट लूँ, है क्यों बता उदास तू //मतला//

लगे है आज भी मुझे, भुला नहीं सकूँ तुझे
कभी जो मिट न पायेगी, वही है मेरी आस तू //1.//

छिपी तुझी में तश्नगी, नुमाँ तुझी में हसरतें
लुटा दे आज मस्तियाँ, बुझा दे मेरी प्यास तू //2.//

वजूद अब तिरा नहीं, ये जानता हूँ यार मैं
मिरा रगों में आ बसा है, अब तो और पास तू //3.//

छिपाए राजे-ज़ख़्म तू ऐ यार टूट जायेगा
ग़मों से चूर-चूर यूँ, है कबसे बदहवास तू //4.//

•••

(61.) 20 सर्वश्रेष्ठ दोहे

ग़ज़ल कहूँ तो मैं ‘असद’, मुझमे बसते ‘मीर’
दोहा जब कहने लगूँ, मुझमे संत ‘कबीर’ // 1. //

युग बदले, राजा गए, गए अनेकों वीर
अजर-अमर है आज भी, लेकिन संत कबीर // 2. //

ध्वज वाहक मैं शब्द का, हरूँ हिया की पीर
ऊँचे सुर में गा रहा, मुझमे संत कबीर // 3. //

काँधे पर बेताल-सा, बोझ उठाये रोज़
प्रश्नोत्तर से जूझते, नए अर्थ तू खोज // 4. //

विक्रम तेरे सामने, वक़्त बना बेताल
प्रश्नोत्तर के द्वन्द्व में, जीवन हुआ निढाल // 5. //

विक्रम-विक्रम बोलते, मज़ा लेत बेताल
काँधे पर लादे हुए, बदल गए सुरताल // 6. //

एक दिवस बेताल पर, होगी मेरी जीत
विक्रम की यह सोचते, उम्र गई है बीत // 7. //

महानगर ने खा लिए, रिश्ते-नाते ख़ास
सबके दिल में नक़्श हैं, दर्द भरे अहसास // 8. //

रेखाओं को लाँघकर, बच्चे खेलें खेल
बंटवारे को तोड़ती, छुक-छुक करती रेल // 9. //

चिन्तन, मन्थन ही रहा, निरन्तर महायुद्ध
दुविधा में वह पार्थ थे, या सन्यासी बुद्ध // 10. //

सच को आप छिपाइए, यही बाज़ारवाद
नैतिकता को त्यागकर, हो जाओ आबाद // 11. //

वहाँ न कुछ भी शेष है, जहाँ गया इंसान
पृथ्वी पर संकट बना, प्रगतिशील विज्ञान // 12. //

अजगर डूबे जश्न में, मारा एक भुजंग
सेक सियासी रोटियाँ, बच गए सब दबंग // 13. //

कितने मारे ठण्ड ने, मेरे शम्भूनाथ
उत्तर सभ्य समाज से, मांग रहा फुटपाथ // 14. //

गीता में श्री कृष्ण ने, कही बात गंभीर
औरों से दुनिया लड़े, लड़े स्वयं से वीर //15. //

हथियारों की होड़ से, विश्व हुआ भयभीत
रोज़ परीक्षण गा रहे, बरबादी के गीत //16.//

महँगी रोटी-दाल है, मुखिया तुझे सलाम
पूछे कौन ग़रीब को, इज़्ज़त भी नीलाम //17.//

महँगाई प्रतिपल बढे, कैसे हों हम तृप्त
कलयुग का अहसास है, भूख-प्यास में लिप्त //18.//

सबका खेवनहार है, एक वही मल्लाह
हिंदी में भगवान है, अरबी में अल्लाह // 19. //

होता आया है यही, अचरज की क्या बात
सच की ख़ातिर आज भी, ज़हर पिए सुकरात // 20.//

•••

(62.) ग़ज़ल

कहने को ज़िन्दगी का मेला है
भीड़ में हर कोई अकेला है

डर उसे जान जाने का नहीं कुछ
इश्क़ का खेल जो भी खेला है

इश्क़ ने मुश्क़िलें ही पैदा कीं
ये सितम उम्रभर ही झेला है

हिज़्र में नींद थी कहाँ इक पल
रो के हालात को धकेला है

उम्र तन्हाइयों में ही ग़ुज़री
आशिक़ी बे-वज़ह झमेला है

सोचता हूँ कभी कभी तन्हा
ऐ महावीर क्यों ये मेला है

•••

Language: Hindi
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