तुम ही बाधाओं से लड़े नहीं
मंजिल मिलने को आतुर थी लक्ष्य तुम्हीं ने गढ़े नहीं
जीत तुम्हारी तय थी तुम ही बाधाओं से लड़े नहीं
हार मानकर बैठ गए तुम शिखरों की ऊँचाई से
तत्पर था पर्वत झुकने को तुम ही ऊपर चढ़े नहीं
नदियाँ तो खाली बैठी थीं अनुगामी बन जाने को
मगर भगीरथ जैसा हठ लेकर के तुम ही अड़े नहीं
पड़े हुए हैं पचड़े कितने काश्मीर की घाटी में
मुद्दे हल हो जाते पर तुम ही पचड़े में पड़े नहीं
देश तरक्की कर सकता था सत्तर सालों में लेकिन
मजलूमों का हाथ पकड़कर तुम ही आगे बढ़े नहीं
समझ गए होते जीवन की सच्चाई तुम भी लेकिन
हाथों में थी किताब पलटकर पृष्ठ तुम्हीं ने पढ़े नहीं
दे सकते थे छाया तुम भी बनकर वट सा वृक्ष घना
मगर कहूँ क्या ‘संजय’ तुम ही बीज सरीखा सड़े नहीं