तुम ही थे
कहीं बैठा था मैं अपने स्वप्न-मित्रों के साथ
और लगा तभी मुझे कि
एक हवा के झोकें से कुछ विचलित
सा हो गया हूँ मैं
और किंचित मन के क्षितिज पर
उभरती एक तस्वीर दिखाई दे रही थी
कुछ धुंधली-धुंधली सी कुछ कुछ उछली-उछली सी।
थमा जब भावों का बवंडर
तो लगा कि कुछ ओंस की बूँदे
ठहर सी गई है हांथो की हथेली पे
कुछ शीतल-शीतल सा एहसास कराती हुई सी।
आँखों पे फेरा जो हाथों को मैने
तो कुछ सफाई फेरती हुई लगी
मुझे मन के कपाट पर अंकित हुई
वो तस्वीर मेरे स्वप्न की
वो छुपी हुई आकृति सी।
तुम ही थे वो हाँ! हाँ! वो तुम ही थे।