तुम्हारे पीठ पे…
यूँ तो कई बार मिले हो तुम
मगर खाबों में…
एक बार… बस एक बार
पीछे से धपाक करने की चाहत
तुम्हारे पीठ पे…
छोटे बच्चे की तरह झूल जाने की
मन में अजीब सी कसमसाहट
कि तुम पलट कर देखना चाहो
तो गालों में मेरे चुभ जाय
तुम्हारे दाढ़ी का रुखा सा बाल
और मैं कहूँ ‘जाओ तुम बहुत बुरे हो’
और तुम सहलाओ मेरे गालों को
और कहो चुभने वाली चीज चुभ ही जाया करती है।
तुम्हारे पीठ पे ऐसे बरस जाने को आतुर मेरा मन
जैसे… सूरज की पहली आंच से
धरती के पीठ पे बरस जाता हो हरसिंगार
अपनी स्निग्धता और सुवास के साथ
और उसी आंच में सूख कर खाद हो जाता है
मेरा मन आतुर है, तुम्हारी आंच से खाद होने को
ताकि खिल सके हजारों
प्रेम पगा हरसिंगार और बरसता रहे
धरती के पीठ पे, सदियों तक…
…सिद्धार्थ