तुम्हारी कसम …
तुम्हारी कसम …
सच
तुम्हारी कसम
उस वक़्त
तुम बहुत याद आये थे
जब
सावन की फुहारों ने
मेरे जिस्म को
भिगोया था
जब
सुर्ख़ आरिज़ों से
फिसलती हुई
कोई बूँद
ठोडी पर
किसी के इंतज़ार में
देर तक रुकी रही
जब
तुम्हारे लबों के लम्स
देर तक
मेरे लबों से
बतियाते रहे
जब
घटाओं की
कड़कती बिजली में
मैं काँप जाती
जब
बरसाती तुन्द हवाओं से
चराग़ बुझ कर
मुझे तन्हा
कर जाते
जब
सहर के वक्त
बिस्तर पर
न कोई सलवट होती
न
बिखरे गज़रे के फूल होते
जब
तारीकियों में
हर आहात खामोश हो जाती
बस
होती थी तो
जिस्म में
शेष बची साँसों की तरह
इक इक सांस पे
रुकी हुई बरसात की
टपकती हुई
इक इक बूँद की
टप टप की आवाज़
जो
मेरी हर कसमसाहट को
अंगारों की तड़प दे जाती
सच
तुम्हारी कसम
उस वक्त तुम
मेरे तसव्वुर की चौखट पर
बिना दस्तक आये थे
मैं
कुछ कह न सकी
बस
भीगती रही , भीगती रही
बरसती बारिश में
तुम्हारी आगोश के
इंतज़ार में
इक इक पल
भीगता रहा
उस वक़्त
हाँ
उस
………….
वक़्त
………..
कसम से
………..
तुम
…………
बहुत याद आये थे,बहुत …याद ….आये ….थे….
सुशील सरना