तुम्हारा चश्मा
आज तुम्हारा चश्मा लगाना ही पड़ा हमें..
अधमुंदी आँखों से देख रही थी
अब तक यह दुनिया
चँद चेहरे ही उघड़े थे अभी कि
अब तक तुम्हारी आँखों से
देखी थी दुनिया ।
धुंधली सी नज़र आई यह ज़मीं
तुम्हारी आँखों के बिना ,
कि अब तुम्हारी आँखें साँस नहीं लेती
उन खामोश लबों पर
ज़िन्दगी मुस्कुराती थी कभी
अब टटोलते हाथों में
रूह भी हाथ आती नहीं।
ऐनक तुम्हारी लगाई आज कि
अपने चश्मे से नज़र कुछ आता नहीं
तुम्हारी ऐनक बन गई रोशनी
मेरी कमज़ोर नज़र की
ओझल हुई थी जो दुनिया
एक पल के लिए सामने खड़ी हो गई ।
और खोजे बहुत वो पल
अपनाकर आँखें तुम्हारी
पर बरसों से बँधा सैलाब उमड़ पड़ा था
मानो दो जोड़ी आँखों ने
अपना दुखड़ा कहा था ।
अब इन आँखों के
इंतज़ार की वजहें बदल गई हैं
न तुम्हारी आवाज़ बुलाती है इन्हें
और न पास बिठाती है इन्हें
बस अहसास है कि
रूह आस पास है
तुम्हारी उन जुदा होती आँखों की
उस तड़प की
आज भी ज़िंदा हर साँस है ।
तुम्हारी ऐनक ‘आँखें’ बन गई है हमारी
अच्छा है कि
तुम्हारी उन अनुभवी आँखों का
चश्मा हमारे पास है ।
————डॉ सीमा (copyright)