तुझसे मिलकर वो सँवर जाता है
आँख में आके ठहर जाता है
वो तो नस-नस में उतर जाता है
गर्दिशों में जो बिखर जाता है
तुझसे मिलकर वो सँवर जाता है
ज़ख़्म हर बार ही भर जाता है
दर्द तो और उभर जाता है
रंग जिस पर भी अना का चढ़ता
वो ही किरदार अख़र जाता है
झूट बातों में भरा है उसकी
हर दफ़अ सच से मुकर जाता है
जिसका होता न ज़माना साथी
शख़्स वो तेरे ही दर जाता है
है वो मजबूर कमाने के लिये
छोड़कर गाँव नगर जाता है
सब्र कर ले भी अभी तू थोड़ा
वक़्त जब तक न गुज़र जाता है
उसको मालूम ग़लत क्या होता
क्यूँ न ‘आनन्द’ सुधर जाता है
– डॉ आनन्द किशोर