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25 Apr 2022 · 1 min read

तलाश

तलाश*
भटकना रोज ही है
अंदर भी बाहर भी
कभी अपने को न पाया,
किया तलाश कितना भी
अंदर भी और बाहर भी

वही मंजर, वही राहें
वही इमारत, वही दलान
ढूंढता हूं जिसको यहां
मिलता नहीं कितना भी

कौन सी बात, कौन सी उलझन
समझता हूं, समझता भी नहीं
बहुत सी काबिलियत
पर फंसता जाता हूं
समझाता हूं जितना भी

ये बेचारी कुछ लम्हों की
उम्मीदें हैं कुछ सपनों की
कभी तो रात खत्म ही होगी
अपनों की तलाश, फिर सुबह होगी

बीती जिंदगी के निशान पढ़े होंगे
कहीं कुछ घने पेड़ खड़े होंगे

मांगता कोई भी उनसे साया होगा
किसी ने किसी का साथ
फिर निभाया होगा

हवा कुछ थम सी गई होगी
पत्तियों चुहल सी की होगी

कोई हमसाया क्या वहां होगा
किसी ने फिर गीत गाया होगा
कलकल पानी की लहर होगी
परिंदों की हल चल रही होगी

सुबह हर शख्स काम को
निकल गया होगा
कोई अरमान आज भी
साथ लेकर गया होगा

किसी ने तो इस किनारे से
उस किनारे जाते देखा होगा
कोई हाथ हवा में रुखसत
में उठा होगा

ढलते सूरज के समय उस किनारे पर अक्स उभर आता है
एक चेहरा उसी ताजगी से
धुंध में नजर आता है

भटकना रोज ही है
अंदर भी और बाहर भी
कभी अपने को न पाया
किया तलाश कितना भी
अंदर भी और बाहर भी

डॉ राजीव “सागर ”
सागर मध्य प्रदेश

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