तब कहो तुम प्राणिके! क्या, सङ्ग मेरे चल सकोगी?
उलझनों से हो पराजित
पथ विमुख गर मैं हुआ जो
तब कहो तुम प्राणिके क्या
सङ्ग मेरे चल सकोगी?
बात जो भी हो हृदय में, बिन कहे ही जान लूँगा।
मैं तुम्हें प्रण दे रहा हूँ, जो कहोगी मान लूँगा।
पर कहो क्या तुम भी मेरी, वेदनाएं पढ़ सकोगी?
उन व्यथाओं से निसृत जो, मूर्ति क्या वह गढ़ सकोगी?
मान लो जब हो कलंकित
श्राप से शापित सभी पथ
और उस शापित समय जब
जिन्दगी गमगीन होगी।
तब कहो तुम प्राणिके क्या
सङ्ग मेरे चल सकोगी?
हारकर संघर्ष से जो, मैं कभी भी टूट जाऊँ।
दंश से होकर व्यथित जब, मान लो मै रूठ जाऊँ।
लोग मेरी देख हालत, जब कभी भी मुस्कुराएँ।
और उस बेचारगी पर, तंज कस हमको जलाएँ।
सह न पाऊँ उस व्याथा को
मन कहे निज को मिटाऊं
यंत्रणा के उस चुभन से
मैं बना मस्तिष्क रोगी।
तब कहो तुम प्राणिके क्या
सङ्ग मेरे चल सकोगी?
मैं तुम्हारी भावनाओं, को सदा सम्मान दूँगा।
हो भले अभिलाष जैसी, मैं उन्हें बस मान दूँगा।
किन्तु जीवन के डगर में, भाग्य का घट फूट जाये।
मान लो जो प्रण किया है, वह कभी जब टूट जाये।
प्रण निभाने को समर्पित
विधि लिखे से हार जाऊँ
उस विधाता ने लिखा जो
विधि लिखे कारण अयोगी।
तब कहो तुम प्राणिके क्या
सङ्ग मेरे चल सकोगी?
गर्जना जब कर रहा हो, भाग्य पर दुर्भाग्य का घन।
विघ्न बाधा से विकल जब, टूटने को बाध्य हो मन।
जब कभी अपने परायों, सा करें व्यवहार पल -पल।
मित्रता छलने लगे जब, चक्षु में लेकर दूषित जल।
वेदनाओं की भँवर में
अंश तक मै धँस गया जो
और मेरे सङ्ग चलकर
संगति बस तुम धसोगी।
तब कहो तुम प्राणिके क्या
सङ्ग मेरे चल सकोगी?
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिम चम्पारण, बिहार