“डायरी पुरानी”
कैसै बताऊं राते थी वो कितनी सुहानी ,
हम होते थे कमरे मे और ,
तक कर चली जाती थीं वो चांद-चांदनी ।
हाथ में कलम और मेज पुरानी ,
जस्बात उमड़े , हुई खींचातानी ,
सुलझा कर मसला , लिख दी मेरी कहानी ,
वो कहती कुछ नहीं मगर ,
मेरी जुबां बन गयी है वो ” डायरी पुरानी ” ।
खयालो में आ गयी जब ख्वाबों की रानी ,
थम गयी कलम लेकिन ,
पेज थे अभी और खाली ।
करना था जिससे बात जुबानी ,
मुलाकात हो रही थी उनसे रुहानी ,
हर लम्हे मे बुनती चली गई जो मेरी शायरी,
वो करती कुछ नहीं मगर ,
मुझे संवार देती हैं वो ” डायरी पुरानी ” ।
विचारों पर जब एहसास हुए भारी ,
प्रेरणा उसे मानकर ,
मैंने किताबें लिख डाली ।
इंतजार है आएगी वो शाम सुहानी ,
मोहब्बत ऐसी होगी न होगा कोई सानी ,
बहती आंखों का सोख लिया जिसने पानी ,
वो रोती नही मेरे साथ मगर ,
हमदर्द सी बन गयी है वो ” डायरी पुरानी ” ।
समझ सके जो मेरे सवालों को ,
ढूंढता हूं हर चेहरे में वो ज्ञानी ।
कभी साथ होती हैं बीति बातें या ,
कभी होती है दुनिया खयाली
गिरते , संभलते , चलते , रूकते ,
ना जाने क्या मोड़ लेगी जिंदगानी
गुनाहों को मेरे खुद समेट लेती ,
पाठ खुद का पुरा कर ,
नये रास्ते दिखा देती वो ” डायरी पुरानी ” ।
थाम कर जिनकी उंगली
देखी मैंने दुनियादारी ,
मिलते कहां है दुनिया में ?
मां-बाप के जैसे हमसाथी ,
वो कागज की कश्ती और दोस्तों की यारी ,
किस्सों से भरे दादा-दादी ,
याद है वो बेफिक्री की खुमारी ,
वो खुद चलती नहीं मगर ,
मुझे बचपन से मिला देती हैं वो “डायरी पुरानी” ।