झंकृत हो उठे स्मृतियों के तार
ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का, पहला – पहला गाना प्यारा । मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा।
रविवार को सुबह रंगोली, रोज शाम को चित्रहार।
घर- घर के लोगों को कैसा, चढा था इसका बुखार। “हम लोग” का “लल्लू” हो, चाहे “नुक्कड़” का हो “साइकिल वाला”।
जन- जन को इन सब ने, था दीवाना कर डाला।
बच्चे अपना खेल छोड़ते, बूढ़े खाना वहीं मंगाते।
मम्मी खाना तुरंत बनाती, पापा आफिस से सीधे घर आते।
सबसे ज्यादा तो रविवार सायं का, सीन होता था शानदार।
जब आस पड़ोसी दर्शक होते ,और घर वाले होते खिदमतगार।
क्योंकि रविवार को दूर दर्शन पर, दिखाई जाती थी पिक्चर।
और पड़ोसियों की एडवांस बुकिंग का, हुआ करता था चक्कर ।
मेजबान तो मेहमानों की खातिर में, हो जाते थे घनचक्कर।
तौबा करते गलती की शायद, सबसे पहले टीवी लेकर।
फिर दिल में खुश होते, देख कर अपनों का प्यार।
अगले रविवार की फिर, होती एडवांसबुकिंग
और खुद ही हम, निमंत्रण देते बारम्बार।
रामायण पर दादी-नानियां करती सादर प्रणाम,
यूं लगता था टीवी में जैसे साक्षात् सीता राम।
यूं तो आज टेलीविजन पर है चैनलों की भरमार।
किन्तु कहां आज वो अपनापन और वो पहले वाला प्यार।
मित्रों इस कविता से बहुतों के, झंकृत हुए होंगे स्मृतियों के तार।
ताजा हो उठी होंगी बचपन,
या युवावस्था की यादें फिर एक बार। याद आ गया मुझको, गुजरा जमाना।
खुशबू भीनी-भीनी, जायका शाहाना।
बीती यादों का तराना………..
– – – रंजना माथुर 12 /12/ 2016
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
@ copyright