जज़्बा
ग़र्दिश -ए-अय्याम में कोई भी सहारा न था ,
इस सफर में कोई भी हम-नफ़स, न हम-नवा था ,
चारों तरफ तीरगी थी, रोश़न श़ु’आ’ का कोई
निशां न था ,
आलम-ए- तन्हाई थी, सरगर्मियों का कहीं
पता न था ,
शज़र भी उदास था, चिड़ियों के चहचहे भी थे गुम़सुम़,
सर्द हवाओं के झोंके थे, माहौल भी था
कुछ पुर-नम़ ,
फासले तय करने का जज़्बा लिए ,
मैं आगे बढ़ता रहा.
कुछ कर गुज़रने की उम्मीद लिए ,
मुश्किलों से लड़ता रहा ।