जैसे ताज महल है
22 + 22 + 22
ये क्या खूब ग़ज़ल है
जैसे ताज महल है
तेरा हुस्न कहूँ क्या
खिलता कोई कमल है
तन तो सुन्दर है ही
और हृदय निर्मल है
काज करे जो काले
कहता सब ही धवल है
देख उसे न भरे जी
उसका रूप नवल है
छल करता यार मिरा
और कहे वो विमल है
ज़िक्र है रोज़े-हश्र* का
या फिर, रोज़े-अज़ल** है
ज़हर फ़िज़ाँ में जो घुला
नफ़रत, रद्दे-अमल*** है
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*रोज़े-हश्र—प्रलय-निर्णय का दिन, क़यामत
**रोज़े-अज़ल—आदिकाल, प्रथम दिन
***रद्दे-अमल—प्रतिक्रिया