जीवन धारा
सन् 1974 में आई एक तमिल फिल्म का रीमेक है,फिल्म जीवन-धारा जिसकी मुख्य धारा में हैं,मेरी सदा से प्रिय अभिनेत्री,रेखा जी।
इस फिल्म के बारे में लिखने से पहले मैं रेखा जी के बारे में विशेष रूप से कुछ लिखना चाहूँगीं।
रेखा जी के लिए शब्दकोष के सारे सुंदर शब्दों का प्रयोग करने के बाद भी कुछ और सुंदर शब्दों के चयन का सफर जारी रह सकता है,उनकी अदाकारी में उनका सारा अभिनय, आँखों से बयां हो जाता है।
उनकी बेशुमार अच्छी फिल्मों और जीवंत चरित्रों की कहानियों में से हीं एक है,जीवन धारा की कहानी।
ये एक ऐसी लड़की की कहानी है जो कई भाई-बहनों के बीच में सबसे बड़ी है।पिता ने संन्यास ले लिया या संभवतः परिवार की ज़िम्मेदारियों को देखकर पलायन कर गए।
बड़ा भाई (राज बब्बर) शराबी,आवारा और ग़ैर ज़िम्मेदार है बनिस्पत उसके बीवी,बच्चे हैं।
एक छोटी बहन है जो पढ़ती है।
माँ शांत,धैर्यवान और आम भारतीय माँओं की तरह पुत्रमोह से ग्रसित है।
रेखा ने अपने कंधो पर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी उठाई हुई है।एक छोटी सी नौकरी से अपने इतने बड़े कुनबे का पालन पोषण करती है और रौब से रहती है।
जी हाँ,रौब से रहती है और यही इस फिल्म की कहानी का सशक्त पक्ष है।
बहुत छोटे से घर का सबसे बड़ा और अच्छा कमरा वो अपने लिए रखती है और कहती है कि जो घर चलाता है,वही घर का मालिक होता है।
कई दृश्य और संवाद ऐसे हैं फिल्म में जो मर्म को भेद देते हैं।जब उसका बड़ा भाई कहता है कि मैं मर्द हूँ,मैं बड़ा हूँ इसलिए वह कमरा उसका होना चाहिए, तब रेखा द्वारा दिया जवाब कि जिस दिन घर की ज़िम्मेदारी उठा लोगे ,मैं खुशी से वह कमरा खाली कर दूँगी,सिर्फ ये एहसास दिलाना था कि उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
कई और पात्रों से सजी यह फिल्म कहानी के और छोटे-छोटे बिंदुओं से हो के गुज़रती है।
कँवलजीत,जो बस में आते जाते रेखा से मिलता है,दोनों प्रेमपाश में बँधते हैं,कँवजीत ,रेखा के घर आना जाना शुरू करता है और रेखा की छोटी बहन को उससे प्यार हो जाता है,त्रासदी ये कि उसी के घर में रह रहे किराएदार (अमोल पालेकर) को रेखा की उसी बहन से प्रेम है।
प्रेम को लेकर ये कहानी थोड़ी उलझी हुई है।
सच जानकर रेखा अपने प्रेम का बलिदान करती है और अपनी बहन की शादी अपने प्रेमी से करा देती है।
उसके भावी जीवन को लेकर देखे गए सपने टूट जाते हैं और फिर वही बस में धक्के खाने के दिन आ जाते हैं।
वो हमेशा अपने बड़े भाई को धिक्कारती है ,अपनी जिम्मेदारियों को न निभाने का एहसास कराती है,एक दिन ऐसा भी आता है कि वो सुधर जाता है।
रेखा की ज़िंदगी में एक और खुशी चुपके से अपने पाँव रखती है,उसका बाॅस(राकेश रौशन)उसे शादी का प्रस्ताव देता है।
बारात दरवाज़े पे खड़ी है,राज बब्बर गहने छुड़ाने गया है और उसके कुछ पुराने दुश्मन उसे घेर लेते हैं,वो मारा जाता है,,,
दुल्हन बनी उस मासूम लड़की का सारा श्रृंगार, आँसुओं में बह जाता है।
कहानी जिस बिंदु से शुरू हुई थी,वहीं से फिर शुरू होती है।
इस पूरी फिल्म में वह दृश्य जब रेखा अपनी माँ से फूट-फूटकर रोते हुए कहती है कि वो भी अपना घर परिवार चाहती है,एक भविष्य चाहती है,चाहती है कि बस के धक्के न खाना पड़े,,,आँखों को बिना नम किए आगे नहीं बढ़ पाया।
फिल्म के और कई सोपान हैं जिनमें कितनी हीं तरह की मनोवृत्तियों का उत्थान और पतन दिखाया गया है।
वह लड़की जो सिर्फ पैसे के अभाव में अपने सुंदर जीवन के सपनों का शव लिए, शव बनकर जीती है,इसी किरदार को अपनी अविस्मरणीय भूमिका से जीवंत किया है,रेखा जी ने।
अंतिम दृश्य और यही प्रथम दृश्य भी था,रेखा फिर से उसी बस में ऑफिस जा रही है,टिकट वाला कहता है कि अरे दीदी,आपकी शादी हो गई।
रेखा मुस्कुरा देती है।
एक मंथन योग्य फिल्म, ज़रूर देखें।